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कुन्दकुन्दाचार्य के नाम :
पञ्चास्तिकाय के टीकाकार जयसेनाचार्य ने कुन्दकुन्द के पान दो प्रादि अपर नामों का उल्लेख किया है। षट्माभृत के टीकाकार श्रुतसागरसूरि ने पद्मनन्दी, कुदकुदाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गृप्रपिच्छाचार्य हुन पचिनामो का निर्देश किया है । नन्दिसंघ से संबद्ध विजयनगर के शिलालेख में भी जो लगभग ११८६ ई. का है, रक्त पोधनाम बतलाये गये हैं। दिसघकी पट्टावली में भी उपयुक्त पांच नाम निर्दिष्ट हैं। परंतु अन्य शिलालेखों में पश्मनंदी और कुदकुद प्रथवा कोण्या इट दो नामों का ही उल्लेख मिलता है।
कुन्दकन्द का जन्मस्थान : -
इन्द्रनंदो प्राचार्य ने पप्रनंदी को कुण्डकुदपुर का बनाया है। इसीलिये भवरणवेलगोला के कितने ही शिलालेखों में उनका कोण्डक द नाम लिखा है।धी पी० वी देसाई ने "जैनिज्म इन साउथ इण्डिया" में लिखा है कि मुष्ट फल रेलवे स्टेशन से दक्षिण की और लगभग ४ मील पर एका कोनवण्डल नाम का स्थान है जो अन्नतपुर जिले के मुटी तालुके में स्थित है । शिलालेख में उसका प्राचीन नाम "कोण्डक दे" मिलता है। यहां के निवासी इसे भाज भी "कोण्डकुदि" कहते हैं । बहुन कुछ में भय है कि कुदकदाचार्य का जन्मस्थान यही हो ।
कुन्दकुन्द के गुरु :
__पंगार गे नि:स्पृह वीतराग साधुपों के माता-पिता के नाम सुरक्षित रखने-लेखबद्ध करने की परम्परा प्रायः नहीं रही है । यही कारण है कि समस्त प्राचार्यों के माता पिता विषयक इतिहास को उपलब्धि प्राय: नहीं है। हो इनके गुरुयों के नाम किसी न किसी रूप में उपलब्ध होते हैं। पंचास्तिकाय को तात्पर्यवृत्ति में जयसेनाचार्य ने कुदकुदस्वामी के गुरु का नाम कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव लिखा है और नंदिसघ को पट्टायली में उन्हें जिनचंद्र का शिष्य बतलाया गया है। परंतु कुदकुदाचार्य ने दोधपाहु के अंत में अपने गुम के रूप में भद्रबाहु का स्मरण करते हुए अपने पापको भद्रबाहु का शिष्य बतलाया है । बोधपाहुड की गाथाएं इस प्रकार हैं।
सदनिमारो हो भासामुत्तमु जं जिगणे कहियं । मो तह कहियं गाणं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥६॥
बारस अंगरियाणं चउवस पुस्वंग विउल विस्यरणं । सुयणाणि भव्दवाहू गभषगुरु प्रयदओ जयओ ॥६२।।
प्रथम गाथा में कहा गया है कि जिनेंद्र भगवान् महावीर ने अर्थरूप से जो बथन किया है वह भाषासूत्रों में मानद विकार को प्राप्त हुमा मर्थात् भनेक प्रकार के शब्दों में ग्रश्चित किया गया है। भद्रराह के शिष्य ने उसे