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मार्गदर्शक :- आचामा
सागरी
स
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कुन्दकुन्दाचार्य का विवेह गमन :
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श्री कुन्दकन्दाचार्य के विषय में यह मान्यता प्रचलित है कि वे विदेह क्षेत्र गये थे और सीमंधर स्वामी की दिव्य स्वनि से उन्होंने आत्मतत्त्व वा स्वरूप प्राप्त किया था । यिदेह गमन का सर्वप्रथम उल्लेख करने वाले प्राचार्य देवसेन (वि.सं. दावीं शती) हैं। जैसा कि उनके दर्शनसार से प्रकट है।
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जइ पजमणं दिणाहो सोमंधरसामिदिम्वणारगेण । ण वियोहह तो समणा कह सुमागं पयाणति ॥४३॥
उनमें कहा गया है कि यदि पनन्दिनाथ, सीमन्धर स्वामी द्वारा प्राप्त दिव्यज्ञान से बोध न देते तो श्रमण-मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते ?
देवमेन के बाद ईसाकी बान्हवीं शताब्दी के विद्वान जवसेनाचार्य ने भी पंचाम्निनायक टीका के प्रारंभ . में निम्ननिदिन अवारण पुचिका में कन्दकन्द स्वामी के निदेशगमन की चर्चा की है
"अथ श्री कुमारनन्दिसिद्धान्तदेवशिष्यैः प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्व विदेहं गरवा दोनरागसर्वज्ञ धीमवरस्वामितीर्थकरपरमदेवं दृष्ट्वा तन्मुखकमलविनिर्गत दिव्यषाणो श्रवणावधारितपदार्थासुद्धात्मनत्वादिसारार्थ" गृहीत्या पुनरम्याग: श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य देवः पचनन्छाद्यपराभिवेयरन्तस्तावहिस्तस्वर्गाणमुख्यप्रतिफ्त्यर्थ अथवा शिवकुमारमहाराजादिसंक्षेपाच शिष्यप्रतिबोधनार्य विरचिते पञ्चास्तिकायनाभृतशास्त्र यथाक्रमेणाधिकारशुद्धिपूर्वक तात्पर्यध्याख्यान कथ्यते ।"
जो कमारनन्धि सिद्धारूदेव के शिष्य थे, प्रसिद्ध कथा के अनुसार पूर्व विदेह क्षेत्र जाकर बीनाग सर्वज्ञ श्रीस्वामी तीर्थबर परमदेव के दर्शन कर तथा उनके मुखकमल से विनिर्गत दिव्यध्वनिके श्रनग. से अवधारित पदायोसे गद्ध वात्मनस्व धादि सारभूत अर्थ को ग्रहण कर जो पून: वापिस पाये थे तथा पवनन्दी प्रादि जिनके दूसरे नाग थे, एमे श्री कुन्दकन्दाचार्य देव के द्वारा अन्तस्तत्वकी मुख्य रूप से और बहिस्तन्दको गोगारूप से प्रतिपत्ति कराने के लिये अथवा पिवमार महाराज प्रादि संक्षेप रुचिबाले शिष्यों को समझाने के लिये पञ्चास्तिकाय प्रामृत स्त्र मा गया।
प्राभूल रांकृत टीकाकार थी तसागर मान अपनी टीका के प्रश्न में भी कन्याद स्वामी के विदेह गम का उल्लेख किया है
"श्रीमत्पमनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवऋग्रोवाचायलाचार्यद्धपिच्छाचार्यनामपन्धविराजितन चतुरंगुलाकारागमनदिना पूर्वविदेहपुण्डरी किणीनगरबन्दितश्रीमन्धरापरनामस्वयंप्रभजिनेन तत्प्राप्तश्रु तज्ञानसम्बोधितभारतवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनमनमूरिभट्टारकपट्टाभरण मूतेन कनिकालसर्वनेन विरचिते षट्प्रामृत ग्रन्थे
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