________________
व्यक्ति को विषय रूपी भयानक वन में दौड़ने वाले इन्द्रिय रूपी गजों को, जो कि मन को विक्षुब्ध करने वाले है, सम्पज्ञान रूपी अंकुश से वश में करना चाहिए । मुख्य रूप से मनाप्रित इन्द्रियाँ विषयों में प्रवृत्त हुआ करती हैं। इस कारण मन पर विजय प्रास करना ही जितेन्द्रियता है। जो व्यक्ति विषयों में आसक्त है वह महा विपत्ति के गर्त में पड़ता है । आचार्य राजा को भी काम से सचेत करने के लिए आदेश देते हैं। वे कहते है कि जो व्यक्ति ( राजा) काम से पराजित हो जाता है वह राज्य के अंगों (स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, मित्र और सेना प्राधि ) से शक्तिशाली शत्रुओं पर किस प्रकार विजय प्रास कर सकता है ( ३, ११)। अतः विजयलक्ष्मी के इच्छुक राजा को कभी काम के वशीभूत नहीं होना चाहिए ।
काम से होने वाली हानियों की बोर भी आपार्य सौमदेव ने संकेत किया है। वे लिखते है कि कामी पुरुष का सम्मांग पर लाने के लिए लोक में कोई औषधि नहीं है 1.३.१२)1 स्त्रियों में अरयन्त आसक्ति करने वाले पुरुष का सब, धर्म और शरीर नष्ट हो जाता है (३, १३)। धर्माचार्यों का कथन है कि विवेकी पुरुष को सर्व प्रथम धर्म पुरुषार्थ का पालन करना चाहिए। उसे विषयों की लालसा, भय, लोभ और जोवरक्षा के लोम से कदापि धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए । परन्तु सोमदेवसूरि के अनुसार आर्थिक संकट में फंसा हुमा व्यक्ति पहले अर्थ, जीविकोपयोगी व्यापार आदि करे, तत्पश्चात् उसे धर्म और काम पुरुषार्थों का अनुष्ठान करना चाहिए, क्योंकि लोक की धर्म रक्षा, प्राण-यात्रा और लौकिक सुख आदि सब धन से ही सम्पन्न होते हैं। धर्म, अर्थ और काम पुरुषायों में पूर्व का पुरुषार्थ ही श्रेष्ठ है ( ३, १५) आचार्य के अनुसार सब पुरुषार्थों में अर्थ हो प्रमुख है और अन्य दो पुरुषार्थ-धर्म और काम इस के अभाव में कदापि प्राप्त नहीं हो सकते । नीतिशास्त्र के लगभग सभी आचार्यों ने मानव पुरुषाधों में अर्थ को ही प्रधानता दी है जो कि सर्वथा उचित है। संसार के समस्त प्रयोजनों की सिद्धि अर्थ से ही सम्भव है (२,१)। इस के अभाव में कोई भी पुरुषार्थ पूर्ण नहीं हो सकता। अत: मानव पुरुषार्थों में अर्थ का ही प्रमुख स्थान है। दण्डनीति का महत्त्व
मनुष्य मात्र का परम कल्याण त्रिवर्ग के विधिवत् पालन करने में ही है । त्रिवर्ग से तात्पर्य धर्म, अर्थ और काम से है । त्रिवर्ग की साधना तभी हो सकती है जबकि प्रजा का पालन करने वाला राजा हो और वह दण्डनीति का ज्ञाता हो । दण्ड के द्वारा ही राजा अपने धर्म (राजधर्म) का पालन करता है । इसी हेतु राजा के साथ ही सृष्टिकर्ता ने दण्ड की भी सृष्टि की । अपराधी को उस के अपराध के अनुकूल दण्ड देना दण्ड१. मनु०५७, १४ तस्याचे सर्वभूताना गोप्तार धर्ममात्मजम् । वसतेजोमयं दामसृजाणूर्व मौस्वरः ।,
नीतियाक्यामृत में राजनीति
१८