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जिस समय सेना युद्ध में प्रविष्ट होती है और दूसरी बह जब प्रमुख सेना शत्रु की दृष्टि से परे रखी जाती है और छोटी-सी सेना समाफर उस के समक्ष उपस्थित कर दी जाती है।
पान तथा कौटिल्य ने व्यूहरचना के सम्बन्ध में बड़े विस्तार के साथ विवन किया है। कौटिल्य के अनुसार मकर न्यूह, शकटमूह, भय म्यूह, भव्यूह, शूधिब्यूह, दण्डव्यूह, भोगव्यूह, मण्डलन्यूह, संहतम्यूह आदि व्यूहों के प्रकार है। आचार्य सोमदेव का कथन है कि अच्छी प्रकार से रचा हुआ सैन्य-व्यूह उस समय तक ठोक व स्थिर रहता है, जबतक कि उस के द्वारा शव सैन्य दृष्टिगोचर नहीं होता (३०,८७) । इस का अभिप्राय यह है कि शत्रु सेना दिखाई पड़ने पर विजिगीषु के वीर सैनिक अपना व्यूह छोड़कर शत्रु सैन्य में प्रविष्ट होकर उस से भयंकर युद्ध करने लगते हैं । इस प्रकार रखा हुआ ब्यूह अस्थिर हो जाता है । आचार्य सोमदेव का यह भी निर्देश है कि विजिगीषु के वीर सैनिकों को युद्धकला की शिक्षानुसार युद्ध करना चाहिए, अपितु उन्हें हाल द्वारा किये जाने वाले महानी नो यार में लमही युद्ध करना चाहिए । (३०, ८८)। युद्ध के नियम
प्राचीन काल में युद्ध के भो कतिपय नियम थे। इन्हीं नियमों के अनुसार युद्ध किया जाता था और उन का अतिक्रमण करना बहुत बुरा समझा जाता था । शुक्रनीति की भांति नीतिवाक्यामृत में इस विषय का विस्तारपूर्वक विवेचन नहीं हुआ है किन्तु फिर भी उस में कतिपय नियमों का उल्लेख मिलता है । सम्भवतः सोमदेव भी युद्ध के परम्परागत नियों को ही मानते थे । इसी कारण उन्होंने इस विषय का विशद विवेचन अपने ग्रन्थ में नहीं किया है। वे लिखते हैं कि संग्राम-भूमि में पैरों पर पड़े हुए भयभीत, कास्त्रहीन दाशु की हत्या करने में ब्रह्महत्या का पाप लगता है (३०, ७५)। युद्ध में जो शत्रु बन्दी बना लिये गये ही उन्हें वस्त्रादि देकर मुक्त कर देना चाहिए (३०, ७६) । विजय के उपरान्त विजिगीषु का कर्तव्य
विजेता का विजित देश के शत्रु के प्रति क्या कर्तव्य होना चाहिए, आचार्य सोमदेव ने इस सम्बन्ध में कोई प्रकाश नहीं साला है। परन्तु रामायण, महाभारत, अग्निपुराण, कौटिलीय अर्थशास्त्र आदि ग्रन्थों में इस विषय की चर्चा की गयो है। सम्भवत: सोमदेव भी इस से सहमत थे । याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि विजेता का यह कर्तव्य है कि वह अपने देश की भांति ही विजित प्रदेश को भी रक्षा करें और यहाँ की प्रथाओं, परम्पराओं एवं पद्धतियों को मान्यता प्रदान करे। इसी प्रकार
१०,४।
१. दुक०४, १९०४ तथा की व २. कौ० अर्थ० १०, २। ३. याज्ञ०१, ३४२-४३॥
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध