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के अधिकारों की रक्षा करते है । यद्यपि सोमदेव ने निष्पक्ष न्याय की आवश्यकता एवं महत्व पर बहुत बल दिया है, किन्तु न्यायालयों के संगठन एवं न्यायाधीशों की योग्यता भादि के सम्बन्ध में नीतिवाश्यामृत में अधिक सामग्री उपलब्ध नहीं होती। इस के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि नगरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में न्यायालयों को उचित व्यवस्था थी (२८, २२) । प्रत्येक न्यायालय में कितने न्यायाधीश होते थे तथा उन का क्या क्षेत्राधिकार था इस सम्बन्ध में उन के ग्रन्थ में कोई वर्णन नहीं मिलता । अर्थशास्त्र में दिवानी तथा फौजदारो के न्यायालयों का स्पष्ट उल्लेख है ।' किन्तु नीतिवाक्यामृत में ऐसा कोई उस्लेख नहीं ।
न्याय-प्रणाली के शिखर पर राजा का न्यायालय था जो राजधानी में स्थापित था (२८, २७) । इस न्यायालय को सोमदेव ने सभा तथा इस के सदस्यों को सम्म कहा है (२८, ३ तथा ७)। इस सभा का सभापति स्वयं राजा होता था जो इन सभ्यों को सहायता से न्याय करता था {२८, ५)। सभा में कितने सभासद होते थे इस विषय में आचार्य ने कुछ नहीं लिखा है। प्राचीन नीलिशास्त्र के अन्थों में भी न्यायालय के लिए सभा तथा उस के सदस्यों के लिए सभ्य शब्द का प्रयोग किया गया है। और सोमदेव ने भी इन्हीं शब्दों को अपनाया है। इस प्रकार आचार्य सोमदेव प्राचीन न्याय-व्यवस्था के ही समर्थक प्रतीत होते हैं ।
___नीतिवाक्यामृत के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उपर्युक्त न्यायालय के दो प्रकार के क्षेत्राधिकार थे । प्रथम, तो राजधानी की सीमा में होने वाले समस्त विवादों का निर्णय करने का मौलिक अधिकार इसे प्रास था और द्वितीय, अन्य नगरों एवं ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले निर्णयों की अपील सुनने का अधिकार भी इसे प्राप्त था (२८, २२)। निम्नस्तर के न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध अपील सुनने की उचित व्यवस्था था। यह अपील राजा के म्यायालय में की जाती थी। राजा का न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय था और उस के निर्णय के विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती थी। इस का निर्णय अन्तिम था। सोमदेव लिखते हैं कि राजा द्वारा दिया गया निर्णय मिर्दोष होता है। अत: जो वादी अथवा प्रतिवादी राजकीम आशा अथवा मर्यादा का उल्लंघन कर उसे मृत्यु दण्ड दिया बाम (२८, २३)। आचार्य ने राजकीय आज्ञा को बहुत महत्त्व दिया है। उन का कथन है कि राजकीय माज्ञा किसी के द्वारा भी उल्लंघन नही की जा सकती ( १७, २५)। आगे वे लिखते है कि जिस की आज्ञा प्रजाजनों द्वारा उल्लेधन की जाती है, उस में और चित्र के राजा में क्या अन्तर है (१७, २४ )।
१, की अर्थ०१. १ तथा ३, ६ एवं ४.१ । २. मनु०,८,१२ । धर्मो सिद्धाश्यधर्मेश सभा सत्रोपतिष्ठते । शय चास्य न मृन्तरित विबास्तव सभासदः ।
नीतिवाक्यामृत में राजनीति