________________
है कि सोमदेव दण्ड के उपर्युक्त सिद्धान्तों में विश्वास रखते थे। इन्हीं सिखान्त्रों के आधार पर उन्होंने नीतिवाक्यामृत में दण्ड का बिषान किया है। वे लिखते है कि अपराधी दुष्टों को वश में करने के लिए दण्डनीति के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय है ही नहीं, जिस प्रकार टेड़ा बांस अग्मि पर सेकने से ही सीधा होता है उसी प्रकार दुष्ट लोग दण्ड से ही सीधे होते हैन हि पखादन्यास्ति विनियोगापायो संयोग पुष घळं काष्ठं सरकयति ।
-नौतिवा० २८, २५ इस प्रकार सोमदेव दण्ड के प्रथम सिद्धान्त के समर्थक प्रतीत होते है। अन्यत्र वे लिखते है कि राजा के द्वारा प्रजा की रक्षा करने के लिए अपराधियों को दण्ड दिया जाता है, धन प्राप्ति के लिए नहीं (९, ३)। इस का अभिप्राम यही है कि राजा धन प्राति के लोभ से व्यक्तियों को दण्ड न दे, अपितु अपराधों का उन्मूलन करने की भावना से दण्ड का प्रयोग करे । इण्ड को उचित व्यवस्था से ही राष्ट्र सुरक्षित रहता है। यही दण्ड का निरोधक सिद्धान्त है जिस का उद्देश्य अपराधी को अपराध करने से रोकना है। सोमदेव ने राज्याज्ञा का उल्लंघन भीषण अपराध बताया है। इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि राजा आज्ञा भंग करने वाले पुत्र को भी दामा न करे
____ भाज्ञाभंगकारिणं सुतमपि न सहेत ।-नीतिबा० १७, २३
राजाज्ञा का ना करने हालौं : ए महान दा के विधान किया है (२८, २३) । ऐसे कठोर दण्ड का विधान आचार्य ने इस कारण किया है जिस से कि व्यक्ति राजाज्ञा का उल्लंघन न कर सकें। प्रजा दण्ड के भय से ही अपने-अपने कर्तव्यों में प्रवृत्त रहती है तथा अकृत्यों को नहीं करती (२८, २५)। इस प्रकार आचार्य ने भयावह सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है।
आपार्य सोमदेव दण्ड के सुधारवादो सिद्धान्त में भी विश्वास रखते है। दाह का प्रधान हेतु बतलाते हुए उन्होंने लिखा है कि जिस प्रकार चिकित्सा से व्यक्ति रोगमुक्त हो जाता है उसी प्रकार अपराधियों को दण्ड देने से उन के समस्त अपराध विशुस हो जाते है।
चिकित्सागम इव दोपषिशुद्धिहेतु दंगठः । -मीतिवा० ९, १
यहाँ पर आचार्य स्पष्ट रूप से दण्ड के बदला लेने तथा सुधारवादी दृष्टिकोण में भेद बतलाते हैं। प्रायश्चित्त तथा दण्ड दोनों ही अपराधों को विशुद्ध करने के उपाय बताये गये है। अतः अपराधों को विशुद्ध करने के उद्देश्य से दण्ड दिया जाता है। ऐसा करने से अपराधी का नैतिक स्तर उच्च होता है तथा यह अपराध से विमुख हो जाता है। उचित दण्ड पर बल
___आचार्य सोमदेव ने जहाँ राजाज्ञा का उल्लंघन करने वालों के लिए मृत्यु दण्ड की व्यवस्था की है, वहां उन्होंने राजा के न्याय कर्तव्य पर भी विशेष बल दिया
न्याय व्यवस्था
१८१