________________
६, ४२ ) । पापियों का निवारण करने में राजा पाप का भागी नहीं होता, अपितु उसे राष्ट्र संकटों के विनाश से महान् धर्म की प्राप्ति होती है ( ६, ४१ ) | आचार्य ने राजधर्म की दिशा में राजा के लिए बहुत उच्च आदर्श निर्धारित किये हैं । राजधर्म में धर्मपद से सोमदेवसूरि का यह स्पष्ट अभिप्राय है कि राजा के जिस आचरण से युदय और मोक्ष की सिद्धि होती हैं वह धर्म है ( १, १ ) | आचार्य के सामने मोक्ष साधना का सर्वाधिक महत्व है। उन्होंने इस धर्म साधना के लिए शक्ति के अनुसार तप और त्याग के आचरण को धर्म के अधिगमन का उपाय बतलाया है ( १,३ ) । सोमदेव ने समस्त प्राणियों में समता ( निरता ) के आचरण को परम आचरण बतलाया है ( १, ४) । वे भूतद्रोह को सर्वोपरि दोष मानते हैं ( १, ५) आचार्य के मत में प्रतिदिन कुछ न कुछ तप और दान का आचरण करते रहना चाहिए, क्योंकि दान और तप करने वाले पुरुष को उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है ( १,२७ ) ।
/
इस प्रकार आचार्य सोमदेव ने जीवन में अधर्म का त्याग कर धर्म की साधना से शुभगति प्राप्त कर लेना राजधर्म में राजा के लिए निर्धारित किया है। परन्तु वे राजा को एकांगो मुमुक्षु भी नहीं बना देते । जिस वर्मसाधना में काम और अर्थ का परित्याग हो ऐसी सन्यास प्रधान धर्मसाधना को वे त्याज्य मानते हैं ( ३, ४ ) । इस प्रकार उन्होंने राज धर्म को मोक्ष का भी अमोष साधन बना दिया है। जिस प्रकार गीता का कर्मयोग केवल कर्म न रहकर लोक्ष साधक योग बन जाता है, यहाँ क्षत्रिय का युद्धाचरण भी जिस प्रकार निःश्रेयस साधक है, उसी प्रकार आचार्य सोमदेव ने भी राजधर्म को मोक्ष सापक मान कर उस का निरूपण किया है।
आचार्य सोमदेव द्वारा वर्णित राज्य की परिभाषा में भी उच्च आदर्शों का समावेश है । राजा के पृथ्वी पालतोषित कर्म को वे राज्य कहते हैं ( ५, ४ ) । वह पृथ्वी वर्णाश्रम से युक्त तथा धान्य, स्वर्णादि से विभूषित होनी चाहिए तभी वह राज्य कही जा सकती है ( ५, ५) । यदि उस में यह विशेषताएँ नहीं हैं तो वह राज्य का अंग नहीं बन सकती । इस प्रकार राज्य की यह परिभाषा राजशास्त्र के क्षेत्र में अहितोय है। इस में प्राचीन एवं आधुनिक विद्वानों द्वारा बताये गये राज्य के तत्त्वों का पूर्ण समावेश है | सोमदेव से पूर्व किसी भी राजशास्त्र प्रणेता ने राज्य को इस प्रकार वैज्ञानिक रूप से परिभाषित नहीं किया । अतः यह परिभाषा राज्य शास्त्र के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान रखती है और इसे बाचार्य सोमदेव की महान् येन कही जा सकती है । आचार्य सोमदेव ने धर्म और राजनीति का अपूर्व समन्वय किया है। सम्पूर्ण नीतिवाक्यामृत में धर्म साधना एवं नैतिक तत्त्वों को प्रमुखता देकर राजनीति को धर्मनीति से पृथक नहीं किया है। नीतिवाक्यामृत राजनीति का आदर्श अन्य है । आचार्य सोमदेव प्रत्येक क्षेत्र में माष्यात्मिक दृष्टिकोण व्यावश्यक समझते हैं। राजा के लिए भी अध्यात्म विद्या के ज्ञान का आदेश देते हैं ( ६, २) । राजनीति जैसे ऐहिक
निष्कर्ष
२४
१८५