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कलुषित विषय को सौम्य एवं सात्त्विक रूप देकर आचार्य सोमदेव ने राजदर्शन के क्षेत्र में अपूर्व योगदान दिया है।
सोमदेव ने युद्ध क्षेत्र में भी धार्मिक नियमों की उपेक्षा नहीं की है। वे कूटयुद्ध को अपेक्षा धर्मयुद्ध को ही श्रेष्ठ बतलाते हैं और धर्मविजयो राजा की प्रशंसा करते हैं (३०, ७०)। उन्होंने षाड्गुण्य नीति तथा साम, दाम, दण्ड, भेद आदि उपायों का भी सारगर्भित वर्णन किया है (पागुण्य समु.)। वे युद्ध को तभी आवश्यक समझसे हैं जब अन्य उपायों से कोई परिणाम न निकले (३०, ४ तथा २५)। आचार्य शक्तिशाली राष्ट्र से युद्ध न कर सन्धि करने का ही आदेश देते है और दुबल का शकिशाली के साथ युद्ध करना मनुष्य का पर्वत से टकराने के समान बतलाते है (३०,२४)। युद्ध में मारे गये सैनिकों के परिवार का टर प्रकार से पालन-पोषण करना राजा का पर्म बसलाते है (३०, ९३) । युद्ध एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विषय में आचार्य सोमदेव के विचार बहुत ही उपयोगी एवं राजनीतिक दृष्टि से बड़े महत्त्वपूर्ण हैं।
आचार्य सोमदेव ने एक समृद्ध राष्ट्र की कल्पना को अपनी दृष्टि का आदर्श बनाया है। 'राष्ट्र' शब्द की व्याख्या करते हुए वे लिखते है कि जो पशु, धान्य, हिरण्य सम्पति से सुशोभित हो वह राष्ट्र है ( १२, १)। राष्ट्र की सम्पन्नता के विविध उपायों एवं साधनों पर उन्होंने पूर्ण प्रकाश डाला है। वार्ता की उन्नति में ही राजा की समस्त उन्नति निहित है ऐसा उन का विचार है ( ८,२)। वार्ता के अन्तर्गत कृषि, पशुपालन एवं व्यापार तथा वाणिज्य आते हैं। इन क्षेत्रों में किस प्रकार विकास हो सकता है इस विषय पर उन्होंने उपयोगी विचार व्यक्त किये है (८, ११-१५, १७, २०)। जैनाचार्य होते हुए भी उन्होंने अर्थ . के महत्व को अपनी दृष्टि से भोझल नहीं होने दिया है। उन्होंने धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्यों का हो समरूप से सेवन करने का मादेश दिया है (३,३)। आचार्य तीनों पुरुषार्थों में अर्थ को सब से अधिक महत्त्व देते हैं, क्योंकि यही अन्य पुरुषार्थों का आधार है (३, १६) । उन्होंने काम पुरुषार्थ को भी धर्म से कम महत्व नहीं दिया है। इस प्रकार के विचार व्यक्त कर के सोमदेव ने महान् दूरदर्शिता एवं व्यावहारिक राजनीतिज्ञता का परिचय दिया है। उन के द्वारा बणित अर्थ की परिभाषा बड़ो महत्वपूर्ण एवं सारगर्मित है। वे लिखते है कि जिस से सब प्रयोजनों की सिद्धि हो सके वह अर्थ है { २, १) । वास्तव में उन का कथन सत्य हो है, क्योंकि विश्व में ऐसा कोई भो कार्य नहीं है जो पन से पूर्ण न हो सके। अर्थ व्यक्ति की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ है। सोमदेव का कथन है कि बुद्धिमान व्यक्ति एवं राजा का यह कर्तव्य है कि वह अप्राप्त धन की प्राप्ति, प्राप्त की रक्षा तथा रक्षित की वृद्धि कर (२, ३)। उस को अपनी आय के अनुकूल ही व्यय करना चाहिए (२६, ४४)। जो इस नियम का पालन नहीं करता वह धन कुबेर भो दरिद्र हो जाता है (१६, १८)। आचार्य कोश को ही राज्य का प्राण कहते है (२१, ७)। जैसा कि पूर्वाचार्यों ने मो कहा है।
नीतिवाक्यामृत में राजनीति