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वसुन्धरा वीरों की है ( २९, ६८) अर्थात् पृथ्वी पर दीर पुरुषों का ही अधिकार होता है। वीरता के साथ राजा को विविध शास्त्रों तथा राजदर्शन का ज्ञाता होना भी परम आवश्यक है ( ५, ३१)1 इस प्रकार सोमदेव ने राजनीति के व्यावहारिक सिवान्तों पर विशेष बल दिया है।
राजतन्त्र के प्रबल पोषक होते हुए भी आचार्य ने राजा को निरंकुश नहीं बनाया है। उन के राजतन्त्र में प्रजातन्त्र की आत्मा पूर्णरूपेण परिलक्षित होती है । उन का बादेश है कि राजा प्रत्येक कार्य मन्त्रियों के परामर्श से ही करे और कभी दुरापहन करे (१०,५८)। वे राजा को सुयोग्य मन्त्रियों, सेनापति, पुरोहित एवं अन्य राजकर्मचारियों को नियुक्त करने का परामर्श देते हैं। प्राचार्य सोमदेव स्वदेशवासियों को ही उच्चपदों पर नियुक्त करने के पक्ष में है (१०, ६) । मन्त्रियों के परामर्श से राजकार्य करने से लाभ तथा उन की अवहेलना करने से होने वालो हानियों को और भी उन्होंने संकेत किया है । उन का विचार है कि सुयोग्य मन्त्रियों के सम्पर्क से गुणरहित राजा भी सफलता प्राप्त कर सकता है ( १०, २-३)। आचार्य ने मन्त्री और पुरोहित को राजा के माता-पिता के समान बतलाया है ( ११.२)। जिस प्रकार माता-पिता अपने पुत्र के हितचिन्तन में सर्वदा प्रयत्नशील रहते हैं, उसी प्रकार मन्त्री और पुरोहित भी राजा का सर्वदा हितचिन्तन करने में तत्पर रहते हैं। इसी कारण सोमदेव ने उन्हें राजा के माता-पिता के समान बतलाया है। इस प्रकार सोमदेव वैधानिक राजतन्त्र के समर्थक है।
आचार्य ने लोकहितकारी राज्य के सिद्धान्त का पर्णरूप से समर्थन किया है। उन्होंने राज्य को धर्म, अर्थ, काम रूप विवर्य फल का दाता बतलाया है ( पु०७)। आचार्य की दृष्टि में प्रजा का सर्वाङ्गीण विकास करना राजा का परम कर्तव्य है । इस के साथ ही वे राजा को मर्यादा का पालन करने का भी आदेश देते हैं । मर्यादा का अतिक्रमण करने से फलदायक भूमि भी अरण्य के समान हो जाती है ( १९, १९) तथा मर्यादा का पालन करने से प्रजा को अभिलषित फलों को प्राप्ति होती है ( १७, ४५ )। वे कहते हैं कि राजा को प्रजा के समक्ष उच्च आदर्श उपस्थित करने चाहिए, क्योंकि प्रजा राजा का अनुकरण करती है। राजा के अधार्मिक हो आने पर प्रजा भी अधामिक हो जाती है ( १७, २९)।
राजा को अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत् करना चाहिए । न्याय के पथ का अनुसरण करने का भी आचार्य ने आदेश दिया है। उन का कथन है कि राजा को प्रजा के साथ कभी अन्याय नहीं करमा चाहिए और उस के अपराधानुकूल ही दण्ड देना चाहिए ( ९, २)। अपराध के अनुकूल दण्ड अप ने पुत्र को भी देना चाहिए ऐसा आचार्य का विचार है ( २६, ४१ )। वे राजा के देवत्व के सिद्धान्त में भी विश्वास रखते हैं ( २९, १६-१९)। इस के साथ हो सोमदेव प्रजा की रक्षा न करने वाले राजा को निकृष्ट बतलाते है तथा उसे मरक का अधिकारी समझते है { ७, २१ तथा १५३
नीतिवाक्यामृत में राजनीति