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निष्कर्ष
आचार्य सोमदेवसूरि का प्रादुर्भाव ऐसे काल में हुआ जब हिन्दू राज्य का । सूर्य अस्तोन्मुख था। हर्षवर्धन के अनन्तर' कोई भी ऐसा हिन्दू राजा नहीं हुआ जो समस्त देश अथवा उस के अधिकांश भाग को एक केन्द्रीय सत्ता के अन्तर्गत कर सके।
सो कारण हर्ष का भारत का अन्तिम साम्राज्य निर्माता कहा जाता है । उस के परचात भारत के राजनीतिक गगन मण्डल पर एक बार पुनः अन्धकार छा गया । हर्ष के बाद हिन्दू राज्य की सत्ता तो रही, किन्तु सुदृढ़ केन्द्रीय शक्ति का नितान्त अभाव हो गया। देश सैकड़ों छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। वे भारतीय नरेश सीमाविस्तार के लिए अपनी दाक्लि का दुरुपयोग करने लगे। इस राजनीतिक अव्यवस्था से लाभ उठाकर यवनों ने भारत की पावन भूमि पर अधिकार कर लिया।
इसी राजनीतिक अव्यवस्था के युग में सोमदेवसूरि का आविर्भाव हुआ। उस काल में भारतीय नरेशों का पथप्रदर्शन करने वाला कोई राजनीति का उद्भट विद्वान् नहीं था। इस अभाव की पति आचार्य सोमदेव ने की। उन्होंने विभ्रान्त भारतीय नरेषणों के पथप्रदर्शनार्थ राजशास्त्र के अमर ग्रन्थ नीतिवाक्यामृत की रचना की। अाचार्य कौटिल्य द्वारा प्रवाहित राजदर्शन की पुनीत धारा कामन्दक के पश्चात् अवरुश हो गयी थी। आषार्य सोमदेव ने राजवान की इस अवरुद्ध धारा को पुन: प्रवाहित किया। उन्होंने समस्त नीतिशास्त्रों एवं अर्थशास्त्रों का गहन अध्ययन कर के अपनी विलक्षण प्रतिभा से उस नीतिसागर का मंथन कर अनर्म तस्व रत्नों के सहित नीतिवचनामृत को उपलब्ध किया। यह अमृत की पावन धारा नीतिवाक्यामृत के रूप में प्रवाहित हुई। इस बारा में अवगाहन कर तत्कालीन राजाओं ने अपने कर्तव्यों एवं आदशों का ज्ञान प्राप्त किया तथा राष्ट्रोत्थान का पुनीत संकल्प ग्रहण किया।
आचार्य सोमदेव ने प्राचीन शास्त्रोक्त राजनीतिक सिद्धान्तों को एक नवीन स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने राजनीति के व्यावहारिक पक्ष पर अधिक बल दिया तथा राज्य और समाज दोनों की उन्नति में सहायक सिद्धान्तों का निरूपण किया । आचार्य ने क्रम और विक्रम को राज्य का मूल बताया है तथा इन में भी बिक्रम पर अधिक बल दिया है। ५, २७)। उन का कथन है कि क्रमागत राज्य भी विक्रम ( शौर्य) के अभाव में नष्ट हो जाता है। अतः राजा को पराक्रमो होना चाहिए। उन को स्पष्ट घोषणा है कि भूमि पर कुलागत अधिकार किसी का नहीं है, किन्तु निष्कर्ष