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(३) सरलतापूर्वक न्यायोचित तर्क सा करना, कामों कहा क. देना सथा (५) शपथ ।
उपर्युक्त पांच हेतु अपराधी के अपराध का निर्णय करने के लिए आवश्यक सावन बतलाये गये है। यदि इन पांच हेतुओं द्वारा निर्णय सम्भव न हो सके तो गुप्तचरों का प्रयोग करना चाहिए और उन की सहायता मे अपराधी के अपराध का पता लगाना चाहिए।'
निर्णय-बहस अथवा क्रिया के पश्चात् निर्णय दिया जाता था। निर्णय निष्पक्ष तथा अभियोग से सम्बन्धित समस्त परिस्थितियों पर विचार कर के दिया जाता था। न्यायालय द्वारा परीक्षण ये बिना किसी को भी दण्ड देना अनुचित समझा जाता था। आचार्य सोमदेव भी इसी विष पोषक है। स्मृति ग्रन्थों के अनुसार निर्णय लिखित रूप में दिया जाता था । जिस लेख में यह निर्णय लिखा जाता था उसे जयपत्र कहते थे। उस की एक प्रति बिजेता पक्ष को दी जाती थी। नीतिवाक्यामृत में इस का कोई उल्लेख नहीं मिलता।
दण्ड विधान-न्यायालय द्वारा दण्ड की क्या व्यवस्था थी इस सम्बन्ध में नीतिवाक्यामृत में अल्प सामग्री ही उपलब्ध होतो है। परन्तु उस के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि दण्ड अपराधानुकूल ही दिया जाता था। अन्यायपूर्ण दण्ट से प्रजा में क्षोभ उत्पन्न हो जाता है।
सम्पत्ति विषयक वादों में अर्थदण्ड की व्यवस्था थी, और सम्पत्ति उस के उचित अधिकारी को ही प्राप्त होती थी। अनुबन्धों को रद्द करने का अधिकार न्यायालयों को या अथवा नहीं, इस का कोई उल्लेख नीतिवाक्यामृत में नहीं मिलता। हाँ, फौजदारी के मुकदमों में अर्थदण्ड, कारावास का दण्ड तथा मृत्युदण्ड का विधान उम में अवश्य है (१६, ३२, २८, १७) । उस में क्लेशदण्ड एवं निष्कासनवण्ड का वर्णन नहीं मिलता। अर्थशास्त्र के अध्ययन से ज्ञात होता है कि स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा उसी अपराध के लिए आधा दण्ड दिया जाता था। सोमदेव ने इस सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं दिया है। उन का सामान्य सिद्धान्त यह था कि अपराष के अनुकूल हो दण्ड देना चाहिए। जिस व्यक्ति ने जैसा अपरान किया है उस को उसी के अनुकूल दण्ड देना दण्डनीति हैयथादोषं दण्यप्रणयनं दण्डनीतिः
-नीतिबा० १,२
१. फो० अ०३,१। २. वृहस्पति स्मृति-व्यवहारकान ६, २५-२६ । ३. कौ० अर्य०४.८। स्त्रियाहवर्धकर्म त्रामानुयोगो का।
न्यायव्यवस्था