Book Title: Nitivakyamrut me Rajniti
Author(s): M L Sharma
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 184
________________ प्रतिज्ञा-न्याय प्रक्रिया में प्रथम महत्त्वपूर्ण चरण प्रतिज्ञा होती है । इस में . अभियुक्त अथवा वादी अपने अभियोग को न्यायालय के समक्ष या तो स्वयं अथवा किसी अन्य के द्वारा प्रस्तुते करता था। तत्पश्चात प्रतिवादी को न्यायालय के समक्ष बुलाया जाता था। प्रतिवादी का यह कर्तव्य या कि न्यायालय द्वारा बुलाये जाने पर वन्न उपस्थित हो और वादो की प्रतिज्ञा का उत्तर दे। तत्पश्चात' वादो को एक बार और प्रतिबादी के उत्तर का प्रत्युत्तर देने का अवसर मिलता था। यदि अमियोग सरल होता था तो उसी समय उस का निर्णय सुना दिया जाता था और यदि उस में तथ्य अथवा कानून की कोई जटिलता होती थी तो दोनों को अपने-अपने वादों में तैयारी - करने का समय दे दिया जाता था। यदि प्रतिवादी ने वादो के पावे अथवा उस पर लगाये गये अभियोग को अस्वीकार कर दिया तो वादी को उस दावे अथवा अपराध गौर करना पड़ता प्रमाण-सोमदेव ने लिखा है कि यथार्थ अनुभव, सच्चे साक्षियों एवं सच्चे लेख इस प्रमाणों से विवाद में सत्य का निर्णय होता है, (२८, ९)। किसो मी याद ( मुकदमे ) की सत्यता का निर्णय करने के लिए प्रमाणों को आवश्यकता होती है। साक्षी अथवा साक्ष्म वचनों और लेख में सोमदेव लेस को ही अधिक प्रामाणिकता प्रदान करते हैं (२७, ६३) । सोमदेव के अनुसार प्रत्येक लिखित प्रमाण को उस समय तक स्वीकार करना उचित नहीं है जबतक कि वह साक्ष्य अथवा अन्य प्रकार से सत्य प्रमाणित न हो जायें| लेख पर भी विश्वास उसी समय किया जाता था जब अन्य प्रमाणों से भी वह सच्चा सिद्ध हो जाता था । आचार्य ने अप्रत्यक्ष प्रमाण से प्रत्यक्ष प्रमाण को अधिक महत्व दिया है। वे साक्षी के उस साक्ष्य ( गवाही ) को प्रमाण नहीं मानते जो राजकीय शक्ति के प्रभाव से साक्ष्य देने के लिए बुलाये गये हों (२७, ६४) । इसी के साथ वे वैश्याओं एवं जुआरियों की साक्ष्य को तभी ठीक मानते है जब कि वह अनुभव व बन्य साक्ष्य द्वारा प्रमाणित हो गयी हो (२८, १२)। आचार्य सोमदेव यह भी अनुभव करते थे कि कभी-कभी वादी झूठे दावे दायर कर देते है, अतः उन्होंने सम्यों को ऐसे व्यक्तियों तथा उन के प्रमाणों से सतर्क रहने का आदेश दिया है और विचारपूर्वक निर्णय देने का निर्देश दिया है (२८, २०)। शपथ-साक्षियों को न्यायालय के समक्ष सत्य बोलने की शपथ भी लेनी पड़ती थी। यदि वे असत्य बोलते थे तो उन को दण्डित किया जाता था। सोमदेव ने सस्म का पता लगाने के लिए प्रमाण प्रस्तुत करने के अतिरिक्त अन्य उपायों की ओर भो संकेत किया है। इस के लिए उन्होंने शपथ और दिव्य का उल्लेख किया है (२८, १४ तथा १६)। आचार्य का विचार है कि साक्ष्य द्वारा विवाद सम्बन्धी सत्यता का निर्णय हो जाने के उपरान्त शपथ क्रिया निरर्थक हो जाती है अर्थात् उस के पश्चात् शपथ क्रिया की आवश्यकता नहीं रहती है। १. वृहस्पति स्मृति-व्यवहारकाण्ड ३, १४ । ग्याय-व्यवस्था

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