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विभिन्न वर्गों से भिन्न-भिन्न प्रकार की शपथ का विधान-धर्मभास्त्री एवं अर्थशास्त्रों में सभी वर्गों के व्यक्तियों से एक-सा व्यवहार, समान दण्ड तथा समान वापथ क्रिया का निषेध किया है। आचार्य सोमदेव भी विभिन्न वर्गों के क्ष्यक्तियों से पृथक्-पृथक् शपथ लेने का विधान मरिचत कर है। उनका कथन है कि विवाद के निर्णयार्थ ब्राह्मणों से स्वर्ण व यज्ञोपवीत स्पर्श करने को; क्षत्रियों से शस्त्र, रत्न, पृथ्वी, हायो, घोड़े आदि वाहन और पालकी का स्पर्श करने वी; बेश्यों से कण, शिशु, कौड़ो, रूपया तथा स्वर्ण स्पर्श करने की; शूदों से दूध, बोज, सर्प को धमई स्पर्श • करने की तथा धोबो एवं चर्मकार आदि से उन के जीवनोपयोगी उपकरणों के स्पर्श मरने की शपथ करानी चाहिए। इसी प्रकार व्रतो एवं अन्य पुरुषों को शुद्धि उन के इष्ट देवता के चरणस्पर्श से तथा प्रदक्षिणा करने से होती है। व्याष से धनुष लांघने की तथा धर्मकार व घाण्डाल आदि से गीले चमड़े पर चलने की शपथ लेनी चाहिए ( २८, ३०-३७ )।
जीविकोपयोगी उपकरणों का शपथ को प्रक्रिया आचार्य सोमदेव की बुद्धिमता एवं मनोवैज्ञानिकता का प्रमाण है ( २८, ३४)। यह स्पष्ट है कि जोत्रिकोपयोगी उपकरणों की शपथ सामान्यतः झूठी नहीं हो सकतो, क्योंकि लोगों को अपनी जीविका से बहुत स्नेह होता है। कुछ व्यक्तियों के सम्बन्ध में सोमदेव ने शपय क्रिया को ध्यर्थ बतलाया है। उन का कथन है कि संन्यासो के वेष में रहने वाले नास्तिक, चरित्रभ्रष्ट तथा जाति से वहिष्कृत व्यक्ति शपथ के अयोग्य है (२८, १८) ।
सत्य का पता लगाने के लिए सोमदेव ने दूसरा उपाय दिव्य बतलाया है। दिव्य का अर्थ उन साधनों से है जिन के द्वारा विवाद का निर्णय शोघ्न हो जाता है और जो निर्णय अम्प मानवी साधनों द्वारा सम्भव नहीं है। अग्नि, जल, विष, कोश आदि को कठिन परीक्षाओं को दिव्य कहते हैं । आचार्य सोमदेव का कथन है कि यदि साक्षी का अभाव हो और शपथ क्रिया निरर्थक हो गया हो तो दिव्य क्रिया का प्रयोग करना चाहिए (२८, १६)।
किया-बाद का तीसरा पाच वादी प्रतिवादी द्वारा तर्क उपस्थित करना था। यदि वादी मन्त्रमा प्रतिवादी अपनी बात प्रस्तुत करने में असमर्थ होते थे तो वे अन्य कानून के ज्ञाताओं के द्वारा अपने पक्ष का समर्थन करा सकते थे। जब न्यायाधीया दोनों पक्षों द्वारा उपस्थित तर्कों को सुन रहा हो तो ययार्थ निर्णय पर पहुँचने के लिए पांच हेतु बतलाये गये है-(१) दृष्टदोष, जिस के अपराध को देख लिया गया हो। ऐसी स्थिति में न्यायाधीश के लिए उस व्यक्ति को अपराधी सिद्ध करना कठिन नहीं होगा। (२) स्वयं वाद, जो व्यक्ति स्वयं अपने अपराध को स्वीकार कर लेता है। ऐसी दशा में भी न्यायाधीश के लिए किसी व्यक्ति को बासयों घोषित कर देना कठिन नहीं होता।
१. दिसतस्त -पृ०२६।
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नीतिघाण्यामृत में राजनीति