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अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
भारत में ऐसा समय कम ही रहा है जब कि सम्पूर्ण देश का शासन एक ही राजा के अधीन दीर्घकाल तक रहा हो । यद्यपि अशोक, कनिष्क तथा समुद्रगुप्त जैसे महान् पराक्रमी शासक हुए, परन्तु उन का साम्राज्य स्थायी रूप धारण नहीं कर सका। इस का कारण प्रधानतः यातायात की असुविधाएं ही थीं। उन असुविधामों के कारण सुदूर प्रान्तों पर वे यथोचित नियत्रण नहीं रख सकते थे: मनः यों ही दोन नाही का 'लास होता था, वे सुदूरवर्ती प्रान्त केन्द्रीय नियन्त्रण से स्वतन्य हो जाते थे और एक स्वतन्त्र राज्य का रूप धारण कर लेते थे। केन्द्रीय सत्ता की शिथिलता का दूसरा कारण विजेताओं की परम्परागस नीति भी थी।
प्राचीन काल से ही शक्तिशाली एवं महत्त्वाकांक्षी राजाओं का आदर्श चक्रवर्ती राजा बनने का रहा है। चक्रवर्ती अथवा सार्वभौम शासक वह होता है जो समस्त देश पर शासन करता है । आचाय कौटिल्य ने चक्रवर्ती राजा की परिभाषा देते हुए लिखा है कि चक्रवर्ती वह है जिस को सोमा का विस्तार उत्तर में हिमालय पर्वत से लेकर समुद्र पर्यन्त हो।' इस आदर्श का परिणाम यह होता था कि देश में निरन्तर युद्ध होता रहता था, क्योंकि प्रत्येक शासक इस आदर्श (चक्रवती बनने ) तक पहुँचने का प्रयास करता रहता था।
सोमदेव ने तीन प्रकार के विजेताओं का वर्णन किया है-१ धर्म विजयी २ लोभ विजयी, ३ असुर विजयो। उन के अनुसार धर्म विजयो शासक वह है जो किसी राजा पर विजय प्राप्त कर के उस के अस्तित्व को नष्ट महीं करता है। अपितु अपने आधिपत्य में उस की स्वायत सत्ता स्थापित रहने देता है। और उस पर नियत किये हुए करों से ही सन्तुष्ट रहता है (३०, ७०) । लोभ विजयी वह होता है जिस को घन और भूमि का लोभ होता है। उस को प्राप्त करने के उपरान्त वह उस को पराधीन नहीं बनाता अपितु उसे अपने आन्तरिक विषयों में पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है (३०, ७१)1 असुर विजयी शासक यह होता है जो केवल धन और पृथ्वी से ही सन्तुष्ट नहीं होता, अपितु यह विजित शासक का वध कर देता है और उस की स्त्री तथा शिशुओं का भी अपहरण कर लेता है. ( ३०, ७२) । प्रथम दो प्रकार की बिजयों
१. की अर्थ०६, १।
नीसिवाक्यामृत में राजनीति