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ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि प्रजाएं ही राष्ट्र का निर्माण करने वाली है।' इस प्रकार प्रजा को चैदिक साहित्य में जनतन्त्र की भांति बहुत महत्त्व प्रदान किया गया है। पथपि वैदिक काल में राजतन्त्र को ही प्रधानता थी, किन्तु उस राजतन्त्र में जमतन्त्र की आत्मा निहित थी। वेदमन्त्रों में जनसन्त्र की भावना और जनता के पक्ष का समर्थन यत्र-तत्र मिलता है। यजुर्वेद में कहा गया है कि राजा की स्थिति प्रजा पर ही निर्भर है।' अथर्ववेद में ऐसा उल्लेख मिलता है-हे राजन, प्रजाओं द्वारा तुम राज्य के लिए निर्वाचित किये जाओ। उसी में अन्यत्र यह भी कहा गया है कि "हे राजन्, तुम्हारे लिए यह आवश्यक है कि सम्पूर्ण प्रजा तुम्हें चाहें।"
इस प्रकार विक साहित्य में प्रजा को बहुत महत्त्व प्रदान किया गया है और उसी के द्वारा राजा के निर्याचन का उल्लेख है। इस के साथ ही वेदमन्त्रों में सभी अंगों की प्रगति और मंगलकामना का उल्लेख मिलता है। सब अंगों के समुचित विकास और सुख-समृद्धि पर ही राष्ट्र को समृद्धि एवं उन्नति निर्भर है।
राष्ट्र' शब्द का उल्लेख हा महाभारत में भी मिलता है। इसमें सटही रक्षा तथा वृद्धि के उपायों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर देते हुए भीष्म कहते है कि "हे राजन्, अब मैं बड़े हर्ष के साथ राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि का रहस्य बता रहा हूँ। तुम एकाग्र चित्त हो कर सुनो।" महाभारत के ६७वें अध्याय में राष्ट्र को रक्षा और उन्नति के लिए राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है। राष्ट्र का सर्चप्रमुख कर्तव्य है कि वह किसी योग्य राजा का अभिषेक करे, क्योंकि बिना राजा का राष्ट्र दुर्बल होता है। उसे वाकू और लुटेरे लूटते तथा सताते हैं। भीष्म का यह भी कथन है कि जिन देशों में कोई राजा नहीं होता वहाँ धर्म की स्थिति नहीं रहती, अतः वहां के व्यक्ति एक दूसरे को प्रसने लगते हैं । जहाँ अराजकता हो उस देश को सर्वथा धिक्कार है।
मनु तथा शुक्र ने राष्ट्र को राज्य का प्रमुख अंग माना है। कौटिल्य ने राज्य की प्रकृतियों में राष्ट्र के स्थान पर जनपद शब्द का प्रयोग किया है। महाभारत
६. ऐत. प्रा०८,२६।
राष्ट्राणि वै विशः। २. यजुर्वेद २० । ३. अथर्ववेद .४,२। ४. वही. ४.८,४।
विक्षस्वा सर्वा वौतु । १. यजु०२२, २२ । ६, महा शान्ति , २। ७. वही. ६०,२॥ ६ मही.६७३। है. मनु०६४ २४ तथा पाक १ १०. को अर्थ०६,१।
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मीतिवाक्यामृत में राजनीति