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इस का मूल कारण यह है कि भारतीयों ने समस्त भूमंडल को एक कुटुम्ब के रूप में माना है। हमारी संस्कृति में देदा प्रधान अभिमान या अन्ध राष्ट्रीयता की प्रधानता नहीं रही है । इस का कारण यह है कि इस भावना के कारण अन्य आदशौ को दबाना पड़ता है । इतना ही नहीं, उस से अनेक जातियों के ईया-द्वेष, दुराग्रह और दुराचरण राज्य को नष्ट कर देते हैं । अतः मारत को राष्ट्रीयता संकुचित अथवा अन्ध राष्ट्रीयता न होकर मानवतावादी राष्ट्रीयता है । वैदिक ब्राषि जनता के सच्चे कल्याण का हो ध्येय अपने सम्मुख रखते थे। अथर्ववेद में लिखा है कि समस्त जनता का कल्याण करने की इच्छा रखने वाले आत्मज्ञानी ऋषियों ने प्रारम्भ में दीक्षा लेकर तप किया। इस से राष्ट्र, बल और ओज का निर्माण हुआ। अतः सब विबुध इस राष्ट्र की भक्ति
करें।
बपियों की तपस्या से राष्ट्रभाव को उत्पत्ति हुई है, राष्ट्र भावना से राष्ट्रीयबल बढ़ता है और त्रुहत् शक्ति प्राप्त होती है। राष्ट्रीयता, बल, ओज इन तीनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। जिन का राष्ट्र है, उन में बल और ओज होंगे, जो शताब्दियों परतन्त्र रहे होंगे उन में राष्ट्रीय भावना नहीं होगी, सांधिक बल भी नहीं होगा और ओज भी नहीं रहेगा ।
राष्ट्र राज्य का मूलाधार है, क्योंकि राज्यांगों में सर्वप्रथम राष्ट्र की हो उत्पत्ति हुई । इस के पश्चात् बल और फिर ओज की सृष्टि हुई।' वैदिक साहित्य से ले कर स्मृति, रामायण, महाभारत, पुराण एवं नीतिग्रन्यों में राष्ट्र के महत्व पर प्रकाश डाला गया है । मनु का कथन है कि जिस प्रकार प्राणधारियों के आहार को बन्द कर देने से शारीर झोपण के कारण प्राण क्षीण होत है, उसी प्रकार राजाओं के भी राष्ट्र पीड़न से प्राण नष्ट हो जाते है। अतः अपने शरीर के समान राजा को राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिए । कामन्दक का कथन है कि राज्य के सम्पूर्ण अंगों की उत्पत्ति राष्ट्र से ही हुई है । इस लिए.राजा सभी प्रयत्नों से राष्ट्र का उत्थान करे। अग्निपुराण में भी इस प्रकार का वर्णन उपलब्ध होता है कि राज्यांगों में राष्ट्र का सर्वाधिक महत्व है।
जिस प्रकार राष्ट्र राज्य का मूलाधार है उसी प्रकार जनता राष्ट्र की आधारशिला है। यदि यह कहें कि जनता ही राष्ट्र है तो इस में कोई अनौचित्य नहीं।
१. अथर्ववेर १६१५.१ । भभिमन्त कन्याम्बनिहरापं। सापसेरयं । तत' राष्ट्र वनमाजश्च जात' तदरम क्षेवा असं नमन । २. हो, १६, ४१.१। ३. मनुव ७, ११२
शरीरकर्षगाप्राणाः सीयन्ते प्राणिनां यथा ।
ल्या राक्षामगि प्राणाः क्षोयन्ते राष्ट्रका | ४. कामन्द६.३। १. अग्नि- २३६,२॥
राष्ट्र
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