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राजधानी
जहाँ राज्य-व्यवस्था से सम्बन्ध रखने वाले राजा तथा अन्य राजकर्मचारी निवास करते हैं उसे राजधानी अथवा पुर कहते हैं। यह शासन का केन्द्र होता है और यहीं से समस्त शासन नीति का प्रसारण होता है। अन्य नगरों की अपेक्षा इस स्थान को विशेष महत्त्व प्रदान किया जाता है और इस को विशिष्ट प्रकार के साधनों से सम्पन्न बनाया जाता है । कहीं इस स्थान की रचना दुर्गवत् होती है और कहीं नगरवत् । यषि इस की रचना नगरवत् होती है तो उस के अन्दर दुर्ग होसा है और यदि दुर्गवत् होती है तो दुर्ग के अन्दर नगर होता है। इसी कारण प्राचीन आचार्यों ने पुर और दुर्ग का प्रयोग पर्यायवाची शब्दों के रूपों में किया है। प्राचीन काल में अधिकसर नगरों की रचना दुर्गाकार रूप में ही की जाती थी । नग्वेद में भी 'आयसीपुरः' अर्थात् लोहनिर्मित पुर का वर्णन मिलता है।
पुर को किस प्रकार से बसाया जाये अथवा उस का निर्माण किस प्रकार किया जाये इस विषय पर नीति ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक विचार किया गया है। जनपद की सीमाओं पर सामरिक स्थानों का निर्माण किस प्रकार किया जाये इस विषय में भी विद्वानों ने विचार किया है। माचार्य कौटिल्य ने दुर्ग विधान के प्रकरण में लिखा है कि राजा को चाहिए कि अपने देश के चारों ओर मुखोपयोगी एवं देवनिर्मित पर्वतादि विकट स्थानों को हो दुर्ग रूप में परिणत कर दे। जल से पूर्ण किसी स्वाभाविक द्वीप अथया गहरो खुदी हुई खाई स परिवटित स्थान ये दो प्रकार के ओदक ( जलीय) दुर्ग माने जाते हैं । बड़े-बड़े पत्थरों से तथा कन्दराओं से घिरा दुर्ग पर्वतदुर्ग कहलाता है । जल तथा घास आदि से हीन और ऊसर प्रदेश में बना हुआ दुर्ग धान्वन ( मरुस्थलीय ) दुर्ग माना जाता है। चारों ओर दलदल से घिरा तथा कांटेदार शादियों से परिवेष्टित दुर्ग वनदुर्ग कहा जाता है। इन में से नदीदुर्ग तथा पर्यसदुर्ग अपने देश को रक्षा करते है। धान्वन्दुर्ग तथा वनदुर्ग जंगलों में बनाये जाते हैं। आपत्तिकाल में राजा इन दुर्गों में आत्मरक्षा करता है।'
जनपद के मध्य में राजा आर सो ग्रामों के बोष बनने वाला स्थानीय नाम का एक नगरविशेष बसाये । वह नगर राजा का समुदयस्थान { राजकोष में रखने योग्य धनराशि जुटाने का स्थान-तहसोल ) कहा जाता है। वास्तुशास्त्र के विज्ञजन किसी निर्दिष्ट स्थान, किसी नदी के संगमस्थल पर, सदा जिस में जल रहता हो ऐसे किसी सरोवर के तट पर अथवा कमलयुक्त किसी तड़ाग के बीच में इस स्थानीय नगर का निर्माण कराये । वास्तु की स्थितिवश वह नगर गोलाकार, लम्बा सफा चौकोर रस्ना जा सकता है। नगर के चारों ओर जलप्रवाह युक्त खाई अवश्य होनी चाहिए। व नगर एक प्रकार का पत्तन कहलायेगा, जिस में उस के चारों ओर उत्पन्न होने वाली
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दुर्ग