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सेना अथवा बल
सेना अथवा बल का प्रयोजन परराष्ट्र एवं शत्रु से अनुकूल व्यवहार कराने के लिए होता है । सभी आचार्यों ने बल अथवा दण्ड को सप्तांग राज्य की प्रकृतियों में प्रमुख स्थान प्रदान किया है । दण्ड का तात्पर्य सैन्यबल से है। सैन्यबल पर विषार प्रकट करते हुए आचार्य कौटिल्य ने अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया है--राजा पर बाह्य एवं आन्तरिक दो प्रकार के कोप पाते हैं। अमात्यादि का कोप आन्तरिक कोप कहलाता है तथा बाह्य कोप शत्रु के आक्रमण से उत्पन्न कोप होता है। इन दोनों कोपों में आन्तरिक कोप अधिक कष्टदायक होता है। इन दोनों कोपों से अपनी रक्षा करने के हेतु राजा को दण्ड एवं कोष को अपने अघोन रखना चाहिए । ' इस वर्णन से स्पष्ट है कि सेना अथवा बल की आवश्यकता देश में व्यवस्था बनाये रखने एवं उस को बाह्य शत्रुओं के आक्रमणों से सुरक्षित रखने के लिए बहुत अधिक है। आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि जिस प्रकार जड़ सहित वृक्ष शाखा, पुष्प और फलादि से बुद्धि को प्रास होता है उसी प्रकार राज्य भी सदाचार तथा पराक्रम से वृद्धिगत होला है ( ५, २७)। बाह्य आक्रमणों से रक्षा करना राज्य का पावन कर्तव्य माना गया है। सोमदेव लिखते हैं कि जो मनुष्य ( राजा ) शत्रुओं में पराक्रम नहीं करता-उन का निग्रह नहीं करता-वह जीवित ही मृतक के समान है (६, ४१)। राजा शत्रुओं का दमन तभी कर सकता है जब उस के पास एक शक्तिशाली एवं सुसंगठित सेना हो।
सैनिक संगठन का उद्देश्य प्रजा का दमन करना नहीं है, अपितु देश-रक्षा तथा राष्ट्र-कण्टकों का विनाश करना है। इस सम्बन्ध में सोमदेव लिखते हैं कि रामा को सैनिक-यक्ति का संगठन प्रजा में अपराषों का अन्वेषण करने के अभिप्राय से नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से प्रजा उस से असन्तुष्ट होकर शत्रुता करने लगती है और इस के परिणामस्वरूप उस का राज्य नष्ट हो जाता है (९, ४) ।।
घल की व्याख्या नीतिवाक्यामृत में इस प्रकार की गयी है-जो शत्रुओं का निवारण कर के घन, दान व मधुर भाषणों द्वारा अपने स्वामी के समस्त प्रयोजन सिद्ध कर के उस का कल्याण करता है उसे बल कहते है (२२, १)। समस्त आचार्यों ने बल के चार अंग माने है और उसे चतुरंग बल के नाम से सम्बोधित किया है। हाथी,
१. डी. बर्य ० ६.२।
सेना अथवा बल
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