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धर्मशास्त्रों एवं अर्थशास्त्रों में मिलता है। यदि राजा इन नियमों को उपेक्षा करने का साहस करता था तो प्रजा उस के विरुद्ध हो जाती थी। इसी भय से सामान्यतः प्राचीन भारत में कर के उपर्युक्त सिद्धान्तों का पूर्णरूपेण पालन किया जाता था ! राजकर साधन था न कि साध्य
___ आचार्य सोमदेव ने कोप वृद्धि में केवल धार्मिक और न्यायिक साधनों का प्रयोग करने की अनुमति दी है। अधार्मिक साधनों द्वारा कोष वृद्धि का उन्होंने सर्वत्र विरोध गया है। जिला है कि मान कोरलीन राणा काय पूर्वक प्रजा से धन ग्रहण करता है तो प्रजा उस का देश छोड़कर अन्यत्र चली जाती है और इस प्रकार राष्ट्र जनशून्य हो जाता है ( २१, ६)। बिना प्रजा के राज्य का अस्तित्व भी नहीं रहता। अन्यत्र माचार्य लिखते हैं कि यदि राजा प्रयोजनाथियों से इष्ट प्रयोजन न कर सके तो उसे उन की भेंट स्वीकार नहीं करनी चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से लोक में उस की हँसो और निन्दा होती है ( १७, ५०)। राजा को अपराधियों के जुर्माने से आये हुए, जुआ में जीते हुए, युद्ध में मारे गये, नदी, तालाब और मार्गों आदि में मनुष्यों के द्वारा भूले हुए धन का तथा चोरी के धन का, पति, पुत्रादि कुटुम्बियों से विहीन अनाथ स्त्री का अथवा रक्षकहीन कन्या का धन एवं विप्लव आधि के कारण जनता द्वारा छोड़े हुए धन का स्वयं उपभोग कदापि नहीं करना चाहिए ( ९, ५)। इस प्रकार के धन का उपयोग प्रजा की भलाई के कार्यों में न तो किया जा सकता था, कितु उस का उपभोग राजा के लिए निषिद्ध था।
राजकर राजा का वेतन था
धर्म ग्रन्थों में कर को राजा का वेतन बताया गया है। महाभारत में जनता से प्राप्त धन को राजा का वेतन ही कहा गया है।' कौटिल्य ने भी घान्य के छठे भाग और पण्य के दसवें भाग को राजा का भागदेय बतलाया है। अन्य नोतिग्रन्थों में भी राजा को स्वामी रूप में मानकर भी प्रजा-पालन के लिए स्वभागरूपी वृत्ति के प्राप्त करने से उसे ( राजा को ) प्रजा का दास ही बताया गया है । प्रजापालन करने के उपलक्ष्य में ही राजा को कर के रूप में धन प्राप्त होता था । नीतिवाक्यामृल में ऐसा उल्लेख आता है कि पालन करने वाला राजा सब के धर्म के छठे अंश को प्राप्त करता है (७, २३) । आगे यह भी कहा गया है कि उस राजा को यह छठा भाग होवे जो हमारी रक्षा करता है (७, २५) । इन सूत्रों से महो ध्वनि निकलती है कि प्रजा राना को उस की सेवाओं के उपलक्ष्य में ही धन कर स्वरूप देती थी।
१. महा० शान्ति.९१, १० । २. कौ० अ०१०१३। ३. शुक्र० १. १८८।
कोष
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