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परीक्षापूर्वक हन चौदह दोषों से बचना चाहिए ।""
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रामायण में भी राजा के उपरोक्त दोषों का वर्णन मिलता है । रामायण एवं महाभारत दोनों ही महाकाव्य इस बात पर बल देते हैं कि राजा को उपर्युक्त दोषों से सर्वथा मुक्त होना चाहिए |
सोमदेव के अनुसार राजा के दोषों का विवेचन
क्रोध को सभी शास्त्रकारों ने मनुष्य का महान् शत्रु बतलाया है। आचार्यों का कथन है कि क्रोष व्रत, तप, नियम और उपवास बादि से उत्पन्न हुई प्रचुर पुण्यराशि को नष्ट कर देता है। इसलिए जो महापुरुष इस के वशीभूत नहीं होता उस का पुण्य बढ़ता रहता है । किन्तु राजा के लिए ऐसा नहीं है। उस के लिए न्याययुक्त कोष करने का विधान है। यदि राजा सर्वधा क्रोध का त्याग कर देगा तो राज्य में अराजकता फैल जायेंगी, क्योंकि सौम्य प्रकृति के राजा से दुष्ट प्रकृति के लोग भयभीत नहीं होंगे गोर वे मात्स्यन्याय का सृजन करेंगे। इस से राज्य में अराजकता फैल जायेगी । दण्ड के भय से ही प्रजा राजा की आज्ञाओं करती है। कोषका परिए है । जब लोग यह समझने लगे कि हमारा राजा तो सन्त है यह किसी पर भी क्रोष नहीं करता तो वे अपने को अदण्डय समझकर मनमानी करने लगेंगे । अतः राजा के लिए क्रोष के सर्वथा त्याग का विधान नहीं है। यह विधान तो गृहस्थ लोगों के लिए अथवा वानप्रस्थी तथा संन्यासियों के लिए ही हैं, किन्तु इतना अवश्य है कि राजा को अपनी शक्ति के अनुकूल ही क्रोध करना चाहिए। यदि वह इस के विपरीत क्रोध करेगा तो स्वयं नष्ट हो जायेगा । इस सम्बन्ध में नाचार्य लिखते हैं कि "को व्यक्ति अपनी और वायु की शक्ति को न जानकर क्रोष करता है यह कोष उस के विनाश का कारण होता है (४,३) ।” अभिमान भी राजा का दुर्गुण है (५, २९) । जो राजा अभिमान के कारण अपने अमात्य, गुरुजन एवं बन्धुओं की उपेक्षा करता है वह रावण को तरह नष्ट हो जाता है । अतः नैतिक पुरुष को कभी अभिमान नहीं करना चाहिए । शास्त्रज्ञान से रहित राजा भी राजपद के अयोग्य है, क्योंकि इस के अभाव में वह शासन कार्यों को ठीक प्रकार से सम्पन्न नहीं कर सकता। इस की हानि का उल्लेख करते हुए सोमदेव ने लिखा है कि जो राजा राजनीतिशास्त्र के ज्ञान से शून्य है और केवल शूरवीरता ही दिखाता है उस का सिंह की भाँति फिरकाल तक कल्याण नहीं होता (५, ३३) । दुष्टता भी राजा का महान् अवगुण हैं । दुष्ट राजा का लक्षण बताते हुए आचार्य ने लिखा है कि जो योग्य और अयोग्य पदार्थों के सम्बन्ध में ज्ञानशून्य है अर्थात् जो योग्य व्यक्तियों का अपमान और अयोग्य व्यक्तियों को दान और सम्मान आदि से प्रसन्न करता है तथा विपरीत बुद्धि से युक्त है अर्थात् शिष्ट पुरुषों के सदाचार
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९. महा० सभा०५, १०-६०१ ।
२. रामायण - २, १००, ६५-६७ ।
राजय
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