________________
सम्बन्ध में सोमदेव लिखते हैं कि यही राणा राजनीति बार पराक्रम का समान हो सकता है जो स्वयं राजनीतिक ज्ञानवान हो अयवा जो अमात्य आदि के द्वारा निर्दिष्ट राजनीति के सिद्धान्तों का पालन करने वाला है (५,३०)। राजा के लिए बुद्धिमान् एवं नीतिशास्त्र का भी ज्ञाता होना परम आवश्यक है क्योंकि बुद्धिमान एवं नीतिशास्त्र ब्रा ज्ञाता पुरुष ही शासन कार्य को सुचारू रूप से चला सकता है (५,३१)। शासन एक कला है और उसे बही व्यक्ति संचालित कर सकते हैं, जिन्होंने इस कला की शिक्षा प्राप्त की है। इस कला का शान राजा को नीतिशास्त्रों के अध्ययन से ही होता है। आचार्य सोमदेव बुद्धिमान् राजा का लक्षण बतलाते हुए कहते हैं कि "जिस ने नीतिशास्त्र के अध्ययन से राजनीतिक ज्ञान और नम्रता प्रास की है, उसे बुद्धिमान् कहते है। शास्त्रज्ञान के लाभ का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि पदार्थ या प्रयोजन नेत्रों से प्रतीत नहीं होता उरा को प्रकाश में लाने के लिए शास्त्र पुरुषों का तृतीय नेत्र है (५, ३४) । शास्त्रज्ञान से दोन पुरुष अन्धे के समान संसार में भटकता फिरता है। शास्त्रज्ञान से शून्य मूर्ख व्यक्ति को धर्म और अधर्म, कर्तव्य और अकर्तव्यं का ज्ञान नहीं हो सकता। जिस व्यक्ति को इन बातों का ही ज्ञान नहीं वह राजपद के सर्वथा अयोग्य है । इसी उद्देश्य से आचार्य ने राजा के लिए शास्त्रज्ञान की मावश्यकता पर बल दिया है (५, ३५)।
शास्त्रज्ञान के साथ ही साथ राजाओं को आन्वीक्षिकी, त्रयो, वार्ता एवं दण्डनीति आदि राजविद्याओं का भी ज्ञाता होना आवश्यक है। ये विद्याएं राज्य की थोवृद्धि के लिए आवश्यक है। इन चारों विद्याओं के जान से होने वाले लाभ का वर्णन करते हुए बाचार्य ने बड़े विस्तार के साथ इन.को व्याख्या को है। मान्धीक्षिकी विद्या के विषय में सोमदेव लिखते हैं कि जो राजा अध्यात्म विद्या ( आन्वीक्षिकी विद्या ) का विद्वान् होता है वह सहज ( कषाय और अन्याय से होने वाले राजसिक
और तामसिक दुःख ) तथा शारीरिक दुःख ( ज्वर आदि से होने वाली पीड़ा ), मानसिक एवं मागन्तुक दुःखों ( भविष्य में होने वाले अतिवृष्टि, अनावृष्टि और शत्रुक्त अपकार आदि ) के कारणों से पीड़ित नहीं होता है ( ६,२)। जो राजा नास्तिक दर्शन को भली-भांति जानता है वह अवश्य ही राष्ट्रकंटकों (प्रजा को पीड़ित करने धाले जार–घोर आदि दुष्टों ) को जड़मूक से नष्ट कर देता है ( ६,३ ) 1 अपराधियों को क्षमादान देना साधु पुरुषों का भूषण है न कि राजाओं का । राजाओं का भूषण तो अपराधियों को उन के अपराधानुसार दण्ड देना है (६,३७ )।
राजा के लिए पराक्रमी होना भी परम आवश्यक है, क्योंकि बिना पराक्रम के प्रा राजा की आज्ञाओं का पालन नहीं करती, शत्रु भयभीत नहीं होते और उस के राज्य पर आक्रमण कर के उस को अपने अघोन बना लेते है । अत: विजिगीषु राजा को अपनो राज्यवृद्धि के लिए पराक्रमो-सैन्य एवं कोष-शक्ति से पूर्णतया सम्पन्न होना चाहिए। इस विषय में आचार्यश्री का कथन है कि "जिस प्रकार अग्निरहित केवल
राजा