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यद्यपि इस प्रकार के कुछ उदाहरण इतिहास में मिल जाते हैं किन्तु फिर मो प्राचीन भारत में ज्येष्ठता के सिद्धान्त की प्रधानता थी। राज्य का अधिकारी राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही होता था ।
राजत्व के उच्च आदर्श
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प्राचीन राजशास्त्र प्रणेताओं ने राजा के आदर्शो की भी व्याख्या की है । प्राचीन काल में राजा और प्रजा का सम्बन्ध पिता और पुत्र के समान था, क्योंकि प्राचीन आचार्यों ने राजत्व के इसी उच्च आदर्श का समर्थन किया था। आचार्य कौटिल्य का कथन है कि प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है तथा प्रजा के हित में हो राजा का हित है। स्वयं को प्रिय लगने वाले कार्यों का करमा राजा का हित नहीं, अपितु प्रजा के प्रिय कार्यों का करना हो राजा का सब से बड़ा हित है । इस प्रकार आचार्य कौटिल्य प्रजा हित को ही सब से अधिक महत्व प्रदान करते हैं और उसी में राजा का हित बताते हैं । महाभारत के शान्तिपर्व में बृहस्पति के दो लोक उद्भूत किये गये हैं, जिन में से प्रथम का आश्रम इस प्रकार है- सम्पूर्ण कर्तव्यों को पूर्ण कर के पृथ्वी का भलीभाँति पालन तथा नगर एवं राष्ट्र की प्रजा का संरक्षण करने से राजा परलोक में सुख प्राप्त करता है। द्वितीय श्लोक का अर्थ इस प्रकार है - जिस राजा ने अपनी प्रजा का अच्छी तरह पालन किया है, उसे तपस्या से क्या लेना है ? उसे यज्ञों का भी अनुष्ठान करने को क्या आवश्यकता है ? वह तो स्वयं ही सम्पूर्ण धर्मो का ज्ञाता
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हैं । इन श्लोकों में भी प्रजाहित को राजा का सब महान् एवं कल्याणकारी कर्तव्य बताया गया है । भाचार्य सोमदेवसूरि भी राजस्व के प्राचीन आदर्शों में आस्था रखते है । उन का कथन है कि प्रजा पालन ही राजा का यज्ञ है, प्राणियों का वध करना नहीं ( २६, ६८ ) । वे प्रजारंजन के पक्ष को सब से अधिक महत्त्व देते हैं । राजा का प्रत्येक कार्य जनहित पर आधारित होना चाहिए और वह सदैव प्रजा के सुख एवं समृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहे ऐसा बाचार्य का मत है। दुष्टनिग्रह तथा शिष्ट पुरुषों का पालन करना ही राजा का धर्म है ( ५,२ ) । आगे आचार्य लिखते हैं कि जो राजा प्रजा की रक्षा नहीं करता वह राजा नहीं ( ७, २१ ) । राजा के लिए दानादि अन्य धर्म तो गोण हैं उस के लिए किसी व्रत की चर्या धर्म नहीं है । अन्यत्र सोमदेव लिखते हैं कि राजा वृद्ध, बालक, व्याधित और रोगो पशुओं का बान्धवों के समान पोषण करे ( ८, ९ ) । इस प्रकार आचार्य की करुणा केवल मानवमात्र तक ही सीमित नहीं है, अपितु पशुओं के प्रति भी उन की सहानुभूति है। राजा प्रजाकार्यों को स्वयं ही देखे, उन्हें राजकर्मचारियों पर कभी न छोड़े ( १७, ३२) । यदि राजकर्मचारियों पर प्रजाकार्य
१. कौ० अर्थ
०१. १६ ।
प्रजामुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितस्
नमप्रियहितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ।
२. मा० शान्ति० ६१, ७२-७३ ॥
राजा
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