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श्राद्ध आदि क्रिया कराने का अधिकार नहीं है उसी प्रकार राजनीतिज्ञान से शून्य मूर्ख मन्त्री को भी मन्त्रणा का अधिकार महीं है ( १०,८९)। मूर्ख मन्त्री अन्धे के समान मन्त्र का निश्चय नहीं कर सकता ( १०,९.)। जो राजा मूर्ख मन्त्रो पर राज्यभार सौंप देता है वह स्वयं ही अपने विनाश के बीज होता है (१०,८७)। आगे आचार्य लिखते हैं कि शस्त्र संचालन करने वाले क्षत्रिय लोग मन्त्रणा के पात्र नहीं है, क्षत्रियों को रोकने पर भी केवल कलह करना सूमता है। अतः उन्हें मन्त्री नहीं बनाना चाहिए । शस्त्रों से जीविका अर्जन करने वाले क्षत्रियों को युद्ध किये बिना प्राप्त किया
या भोजन भी नहीं पचता (१०, १०३) । मन्त्रीपद की प्राप्ति, राजा की प्रसन्नता व शस्त्रों से जीविका प्राप्त करना, इन में से प्राप्त हुई एक भी वस्तु मनुष्य को उम्मत बना देती है, फिर उक्त तीनों यातुओं : इनुवार अवश्य ही जरी पत गन देगा । धनलम्पट व्यक्ति भी मन्त्रणा के अयोग्य है । प्राचार्य सोमदेव का कथन है कि जिस राजा के मन्त्री की बुद्धि धन ग्रहण करने में खासक है उस राजा का न तो कोई कार्य ही सिद्ध होता है और न उस के पास धन ही रहता है (१०, १०४)।
राजा को चतुर व्यक्तियों के साथ ही परामर्श करना चाहिए । सोमदेव लिखते है कि जिस प्रकार नेत्र की सूक्ष्म दृष्टि उस की प्रशंसा का कारण होती है उसी प्रकार राजमन्त्री की भी यथार्थ वृष्टि (सन्धि, विग्रह आदि कार्यसाधक मन्त्र का यथार्थ ज्ञान) उस का राजा द्वारा गौरव प्राम करने में कारण होती है (१०, १००)। राजा को अपराधी व अपराध कराने वालों के साथ भी मन्त्रणा नहीं करनी चाहिए (१०, १६९) । दण्डित व अपराधी पुरुष घर में प्रविष्ट हए सर्प की भांति समस्त आपत्तियों के थाने का कारण होता है (१०, १००)। राजा ने जिन के बन्धु आदि कुटुम्बियों का वष-बम्धनादि अनिष्ट किया है उन विरोधियों के साथ भी मन्त्रणा नहीं करनी चाहिए (१०, ३१)। उन के साथ मन्त्रणा करने से मन्त्र के प्रकट हो जाने का भय रहता है।
मन्त्रवेला में केवल वही व्यक्ति प्रविष्ट हों जिन्हें राजा ने आमन्त्रित किया है। बिना बुलाया हुआ व्यक्ति वहाँ न ठहरे (१०, ३२)। अमात्य और सेनाध्यक्ष आदि राज्याधिकारियों से राजदोष (क्रोष व ईर्ष्या आदि) और स्वयं किये हुए अपराधों के कारण जिन की जीविका नष्ट कर दी गयी है के क्रोधी, लोभो, भोत और तिरस्कृत होते है उन्हें कुत्या के समान महा भयंकर समझना चाहिए (१०, १६५)1 नारद का कथन है कि जिन का पराभव और जिन्होंने पराभव किया है, उन्नति के आकांक्षी को उन के साथ मन्त्रणा नहीं करनी चाहिए।' शुक्र का कथन है कि जिस प्रकार घर में निवास करने वाले सर्प से सदैव भय बना रहता है उसी प्रकार घर में बाये हुए दोषियों से भी भय रहता है। इस के साथ ही राजा को यह बात भो ध्यान में रखनी चाहिए कि वह कभी बाहर से आये हुए दूत के सामने मन्त्रणा न करे । चतुर
१. नारद-नीशिवा। २. शुक्रनीतिवा०. पृ० १३८ ।
नीसिवाक्यामृत में राजनीति