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छोड़ दिया जायेगा तो प्रजा का हित न हो
को अपना कुटुम्ब समझे ( १७, ४९ ) । जिस प्रकार व्यक्ति अपने कुटुम्ब के सुख-दुःख, हानिलाभ की चिन्ता में निरत रहता है, उसी प्रकार राजा को भी भूमण्डल के प्राणियों की रक्षा, पालन-पोषण अपने कुटुम्ब के समान हो करना चाहिए। आचार्य सोमदेव का यह भी कथन है कि राजा देव, गुरु एवं धर्म-कार्यों को भी स्वयं ही देखे ( २५, ६५ ) । इस प्रकार आचार्य सोमदेव प्रजा की हर प्रकार से रक्षा करने तथा उस का संवर्धन करने पर विशेष बल देते हैं और इसी को राजा का सब से बड़ा धर्म बताते है । वे पितृव के सिद्धान्त में भी विश्वास रखते हैं और राजा को आदेश देते हैं कि उसे प्रजा का पालन अपने कुटुम्ब के समान ही करना चाहिए। राजकार्य में जिन व्यक्तियों क प्राणान्त हो गया हो उन के परिवार के पालन-पोषण का भार भी सोमदेव राजा पर ही छोड़ते हैं तथा ऐसा न करने वाले राजा का वे उन मूलकों के ऋण का भाजन बताते है ( ३०, ९३ ) ।
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मस्त प्राचीन धर्मशास्त्रों एवं अर्थशास्त्रों में राजा का जन्म हो प्रजा की सेवा एवं उस का हर प्रकार से हिल चिन्तन करने के लिए बतलाया गया है। महाभारत में ऐसा उल्लेख मिलता है कि राजा का प्रजा के साथ गर्भिणी स्त्री का सा व्यवहार होना चाहिए।' जैसे गर्भवती स्त्री अपने मम को अच्छे लगने वाले पदार्थों बाद का परित्याग कर के केवल गर्भस्थ बालक के हित का ध्यान रखती है, उसी प्रकार धर्मात्मा राजा को भी प्रजा के साथ उसी प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। कुरुश्रेष्ठ, राजा अपने को प्रिय लगने वाले विषय का परित्याग कर के जिस में सब लोगों का हित हो वही कार्य करे। महाभारत में ही अन्यत्र ऐसा वर्णन उपलब्ध होता है कि राजा धर्म का पालन और प्रचार करने के लिए ही होता है, विषय सुखों का उपभोग करने के लिए नहीं । मान्धाता तुम्हें यह जानना चाहिए कि राजा सम्पूर्ण जगत् का रक्षक है और यदि वह धर्माचरण करता है तो देयता बन जाता है और यदि अधर्म करता है तो नरकगामी होता है । सम्पूर्ण प्राणी धर्म के आधार पर स्थित है और धर्म राजा के ऊपर प्रतिष्ठित है । जो राजा भली-भाँति धर्म का पालन और उस के अनुकूल शासन करता है वही दीर्घकाल तक इस पृथ्वी का स्वामी बना रहता है। इस प्रकार महाभारत में राजा को सम्पूर्ण जगत् का रक्षक तथा धर्म का धारण करने वाला बतलाया गया है। मार्कण्डेयपुराण में राजा मरुत की दादी उस को राजधर्म का उपदेश देती हुई कहती हैं कि राजा का शरीर सुखों का उपभोग करने के लिए नहीं
१. महा० शान्ति, ४४ ॥
भवितव्यं सदा राज्ञा गर्भिणीसहथ मिला।
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२. बी. ५६. ४५-४६ ।
३. यही १०.३५ ।
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नीतिवाक्यामृत में राजनीशि