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वं ज्ञानमार्ग को संकीर्ण नहीं बनाते उन की तो स्पष्ट घोषणा है कि जिस का वचन मुक्तिसंगत है उसी को स्वीकार करना चाहिए ।
सोमदेव का महाकवित्व उन के ग्रन्थ यशस्तिलक चम्पू में प्रकट हुआ है । चम्पू काव्य गद्य-पद्यमय होता है। गद्यकाव्य कवियों की कसौटी है । गद्य रचना में कालित्य और माधुर्य लाने के लिए महान् कौशल अपेक्षित है । चमत्कृत गद्य लिखना कुशल एवं महान् विद्वानों का ही कार्य है । चम्पू महाकाव्य की रचना वही सिद्ध कवि कर सकते हैं जिन का गद्य तथा पद्य रचना में समान अधिकार हुँ । यशस्तिलक चम्पू महाकाव्य सोमदेवसूरि के महाकवि होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह महाकाव्य संस्कृत वाङ्मय की अद्भुत रचना है । कवित्व के साथ उस में ज्ञान की भी अपूर्ण भण्डार है । जहाँ इस काव्य में उकि वैचित्र्य से पूर्ण सुभाषितों का आगार हूँ वहाँ वाण और दण्डी रचित दशकुमारचरित की कोटि का गद्य भी है। इस ग्रन्थ की प्रशंसा में यत्र-तत्र भाषार्य सोमदेव ने कुछ श्लोक भी लिखे हैं जिन में उन्होंने अपने काव्य की विशेषता एवं अपूर्वता पर प्रकाश डाला है। उन्होंने अपने चम्पू महाकाव्य की तीन विशेषताएं बतायी है-(१) मौलिकता, (२) अनुपमेयता एवं (३) हृदयमण्डन । आगे वे लिखते है कि लोकव्यवहार एवं कवित्व में दक्षता प्राप्त करने के लिए राज्जनों को सोमदेव कषि को सूक्तियों का अभ्यास करना चाहिए। इन उक्तियों से सोमदेव की कवित्व शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है तथा उन के महाकाव्य यशस्तिलक के महत्व का भी पता चलता है । यशस्तिलक शब्दरूपी रत्नों का विज्ञानकोष है। और इस काव्य के पढ़ने के उपरान्त फिर कोई संस्कृत साहित्य का शब्द शेष नहीं रह जाता। इस के अतिरिक्त इस महाकाव्य में व्यवहार कुशलता का भी महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध होती है। महाकवि सोमदेव के उत्तम कविता से प्रभावित होकर विद्वज्जन इन को 'वाक्कल्लोल-पयोनिधि' 'कविराजकुंजर' और 'गद्य-पद्य विद्याषर चक्रवर्ती' आदि नामों से सम्बोधित करते हैं । सोमदेवसूरि तर्कशास्त्र के भी पारंगत यशस्तिलक चम्पू में उन का अपने प्रसंग में एक स्पर्धा करता है उस के गर्वरूपी पर्वत को विध्वंस घश्चन कालस्वरूप हो जाते हैं'। आधार्य की यह प्रौढोक्ति उन के पाण्डित्य के अनुरूप
विद्वान् थे । उन के महाकाव्य वाक्य इस प्रकार है- "जो मुझ से करने के लिए वज्र के समान मेरे
१. ० १ १४ ।
असहायमनादर्श रत्न रत्नाकरः दिव
मतः काव्यमिदं जस्तो हृदयमण्डनम् । २. व्ही ३.६१३ ।
लोकत्रिस्वे कवित्वे वा यदि चातुर्यचद्मत्रः । सोमदेवकः सूक्तोः समभ्यस्यन्तु साधत्रः १ ३. वही प्रशस्ति
यः स्पर्धेत तथापि दत्ता गा तस्याथ तानिपतद्विकृतान्तार्यते ।
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नीतिवाक्यामृत में राजनीति