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राजा
. समाज में शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना के लिए, उत्तोड़न की इतिश्री के लिए, वर्णसंकरता को रोकने के लिए तथा लोकमर्यादा की रक्षा के लिए राजा की परम
आवश्यकता है। सभी राजशास्त्र वैताओं ने राजा की आवश्यकता एवं महत्त्व को स्वीकार किया है और इसी कारण देवांशों से उस को सृष्टि का विधान निश्चित किया है । राजा शब्द के अर्थ से उस की आवश्यकता प्रतिबिम्बित होती है । राग शब्द का अर्थ प्रजा का रंजन करने वाला, धर्म की मूर्ति तथा कोप्तिमान है और यही उस का सर्व प्रधान लक्षण एवं कर्तव्य है। महाभारत में युधिष्ठिर द्वारा राजा शब्द को व्याख्या करने का आग्रह किये जाने पर भीष्म उन के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते है कि समस्त प्रजा को प्रसन्न करने के कारण उस राजा कहते है।
महाकवि कालिदास ने रघुवंश में रघु का वर्णन करते हुए लिखा है कि जिस प्रकार सभी का आवाहन कर चन्द्रमा ने अपना नाम सार्थफ किया और सब को लपाकर सूर्य ने अपना नाम सार्थक किया, उसी प्रकार रघु ने भी प्रजा का रंजन कर के अपना राजा नाम सार्थक कर दिया । अतः प्रजा का रंजन करने के कारण ही उसे राजा कहा जाता है।
राजा के कारण हो प्रमा समाज में शान्तिपूर्वक निर्वाधरूप से निवास करती है तथा धर्म, अर्थ एवं काम रूप विघर्ग के फल की प्राप्ति करती है। आचार्य सोमदेव ने भी राजा के महत्व को उस के महान् कर्तव्यों के वर्णन द्वारा व्यक्त किया है। वह अपने प्रन्थ के भारम्भ में हो धर्म, अर्थ, काम रूप त्रिवर्ग फल के दावा, राज्य को नमस्कार करते हैं (पृ०७)। इस का. अभिप्राय यही है कि समस्त सुखों की प्राप्ति राज्य के द्वारा हो प्रजा को होती है। सोमदेव ने दुष्टों का निग्रह करना तथा सज्जन पुरुषों का पालन करना राजा का परम धर्म बतलाया है ( ५, २):
राजा की आवश्यकता एवं महत्व का वर्णन महाभारत के शान्तिपर्व में प्राप्त हाला है । कोशल नरेश सुमना द्वारा प्रश्न किये जाने पर कि राज्य में रहने वाले प्राणियों की वृद्धि भैसे होती है, उन का लास कैसे होता है, किस देवता की पूजा करने वाले व्यक्तियों को अक्षय सुख को शप्ति होती है ? आचार्य बृहस्पति कौशल नरेश के १. महा० शान्तिः ५६. १२५ । २, रघुवंश १, १२ ।
राजा
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