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को देवताओं द्वारा स्थापित हुआ मानकर कोई भी उस की आशा का उल्लंघन नहीं करता । यह समस्त विश्व उस एक ही व्यक्ति ( राजा) के वश में स्थित रहता है, उस के ऊपर मह जगत् अपना शासन नहीं चला सकता।'' उस में यह भी कहा गया है कि राजा पृथु की तपस्या से प्रसन्न हो भगवान् विष्णु ने स्वयं उन के अन्तर में प्रवेश किया था। समस्त नरेशों में से राजा पृथु को ही यह सारा जगत् देवता के समान मस्तक झुकाता था। इस प्रकार महाभारत में राजा और देवता में कोई अन्तर नहीं माना गया है। जिस प्रकार संसार के मनुष्य देवसानों को प्रणाम करते है, उन की उपासना करते हैं, उसी प्रकार राजा को भी देवता का साक्षात् स्वरूप मानकर उस की पूजा करते हैं तथा उस के सम्मुख अपना मस्तक झुकाते हैं।
युधिष्ठिर भीष्म से प्रश्न करते हैं कि मानवों के स्वामी राजा को ब्राह्मण लोग देवता के समान क्यों मानते हैं ? इस प्रश्न के समाशन के लिए आचार्य भीष्म राजा नमाना तथा बृहस्पनि के गाय नए संनाद को स्तन पर हैं। उस संवाद में ऐसा वर्णन आता है कि "यह भी एक मनुष्य है ऐसा समझकर कभी भी पृथ्वी का पालन करने वाले राजा की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि राजा मनुष्य रूप में एक महान् देवता है । 'राजा ही सर्वदा समयानुसार पांच रूप धारण करता है। वह कभी अग्नि, कभी सूर्य, कभी मृत्यु, कभी कुबेर और कभी यम का स्वरूप धारण कर लेता है। जब पापी मनुष्य राजा के साथ मिथ्या व्यवहार कर के उसे उगते हैं, तब वह अग्नि रूप हो जाता है और अपने उग्र तेज से समीप आये हुए उन पापियों को जलाकर भस्म कर देता है। जब राजा गुप्तचरों द्वारा समस्त प्रजाओं का निरीक्षण करता है मोर उन सब की रक्षा करता हुआ चलता है, तब वह सूर्य रूप होता है। जब कुपित होकर अशुद्ध आचरण करने वाले सैकड़ों मनुष्यों का उन के पुत्र, पौत्र और मन्त्रियों सहित संहार कर डालता है, तब वह मृत्यु रूप होता है। जब यह कठोर दण्ड के द्वारा समस्त अधार्मिक पुरुषों पर नियन्त्रण कर के उन्हें सन्मार्ग पर लाता है और पार्मिक पुरुषों पर अनुग्रह करता है उस समय वह यमराज माना जाता है। जब राजा उपकारी पुरुषों को धन रूपी जल की धाराओं से तुप्त करता है और अपकार करने वाले दुष्टों के विविध प्रकार के रत्नों को छीन लेता है । किसो राज्य हितैषी को धन देता है तो किसी राज्य विद्रोही के धन का अपहरण करता है, तो उस समय वह पृथ्वीपालक नरेश इस संसार में कुबेर समझा जाता है।"
१. महान शान्सि० १६, १३५ । २. वही, ५६, १२८ । बिही६१.२८
सनल गुरु चेन राजानं योऽव मन्यते ।
न सस्य दत्त न हुतं न श्राद्ध फलते स्थचित । ४. वही, ६, ४०-४७ ।
नीतिवाक्यामृत में सजनीप्ति