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को उन का राजा नियुक्त करें। क्योंकि राजा के अभाव में बे विनाश को प्राप्त हो रहे हैं । उन्होंने कहा हम लोग उस को पूजा करेंगे और वह पालन करेगा। मनुष्यों की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने मनु को उन के समक्ष प्रस्तुत किया, परन्तु मनु इस प्रस्ताव से सहमत नहीं हुए। उन्होंने कहा कि राजा बनने पर बहुत से पाप कर्म करने पड़ते है राजा को लोगों को दण्ड देना पड़ता है। शासन करना बड़ा कठिन कार्य है, विशेषकर उस राज्य में जहाँ मनुष्य मिथ्याचार तथा छल-कपट में संलग्न हो । परन्तु इस पर मनुष्यों ने मनु से कहा कि बाप भयभीत न हों, जो पाप करेगा वह उसी का पाप होगा। हम लोग पशु और स्वर्ण का पचासको भाग तथा धाम्य का सबो भाग राजकोश की वृद्धि के लिए देंगे । आप से सुरक्षित होकर प्रजा जिस धर्म का आचरण करेगी उस धर्म का चतुर्थाश आप को मिला। इस समन् ! सलमहान् सारे रनिट. शाली होकर हमारी आप उसी प्रकार रक्षा करें जिस प्रकार इन्द्र देवताओं की रक्षा करते हैं । इस प्रकार की प्रार्थना किये जाने पर मनु ने राजपद स्वीकार कर लिया ।"
इस सिद्धान्त में राज्य की स्थापना से पूर्व प्राकृतिक अवस्था का सिद्धान्त हॉस द्वारा वर्णित प्राकृतिक दशा से मिलता है। मात्स्यन्याय से तंग आकर लोग बह्मा के पास जाते हैं तथा शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करने की प्रार्थना उन से करते है । परन्तु ब्रह्मा के कहने से मनु राजपद स्वीकार करने से मना कर देते हैं। प्रजा वर्ग के लोग उन से वार्तालाप कर के उन के सन्देह को दूर करते है और उन के द्वारा संरक्षण एवं सुव्यवस्था स्थापित करने के उपलक्ष्य में उन को स्वर्ण का पचासा भाग तथा धान्य का इसी भाग देने के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं। जब मनुष्यों और मनु के मध्य इस प्रकार का अनुबन्ध हो जाता है तो वह राजपद स्वीकार करते हैं। राजा मन का आविर्भाव इस सामाजिक अनुबन्य के परिणाम स्वरूप होता है 1
सामाजिक अनुबन्ध के सिद्धान्त का द्वितीय स्वरूप--महाभारत के शान्तिपर्व में राज्यसंस्था के प्रादुर्भाव पर बड़े विस्तार के साथ विचार किया गया है। युधिष्ठिर भीष्म से प्रश्न करते हैं कि लोक में जो यह राजा सम्द प्रचलित है, इसकी उत्पत्ति कैसे हुई ? जिसे हम राजा कहते हैं वह सभी गुणों में दूसरों के समान ही है। उसके हाय, भुजा और ग्रीवा भी औरों के समान ही है। बुद्धि और इन्द्रियाँ भी दूसरे लोगों के ही समान है, उस के मन में भी दूसरे मनुष्यों के समान ही सुख-दुःख का अनुभव होता है। अकेला होने पर भी वह शूरवीर एवं सत्पुरुषों से परिपूर्ण इस समस्त पच्ची का फैसे पालन करता है और कैसे सम्पूर्ण जगत् को प्रसन्नता चाहता है। यह निश्चित रूप से देखा जाता है कि एकमात्र राजा की प्रसन्नता से ही सम्पूर्ण जगत प्रसन्न होता है और उस एक के ही व्याकुल होने पर सब लोग ब्याकुल हो जाते हैं ।
१.महा शास्तिक१८, १०-३८ ।
नीतिवाक्यामृत में राजनीति