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नीति है ( ९२ ) । दण्डनीति का सभी आचार्यों ने बहुत महत्व कथन है कि दण्ड ही शासक है और दण्ड हो प्रजा है। जब सब जागता है । दण्ड का उचित प्रयोग ही समाज में व्यवस्था रख सकता है और मात्स्यन्याय का अन्त कर सकता है । दण्ड का उचित प्रयोग वही कर सकता है जिस ने दण्डनीति का अध्ययन किया हो । यदि अपराधियों का उन के अपराध के अनुकूल दण्ड नहीं दिया जायेगा तो प्रजा में मात्स्यन्याय उत्पन्न हो जायेगा । दण्डनीति का प्रयोजन राष्ट्र को प्रजा कण्टकों से सुरक्षित रखना, प्रजा को धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थो का बाबारहित पालन करना, उसे कर्तव्यों में प्रवृत्त करना तथा अकर्तव्य से निवृत्त करना, विशाल सैनिक संगठन द्वारा महाशय की प्रति की रक्षा, रक्षित की वृद्धि करमा है । दण्ड की अपूर्व शक्ति का वर्णन करते हुए आचार्य कौटिल्य लिखते हैं कि जब राजा पक्षपात रहित दोष के अनुकूल अपने पुत्र और शत्रु को दण्ड देता है तब वह दण्ड इस लोक और परलोक दोनों की ही रक्षा करता है आन्वीक्षिकी, त्रयो और वार्ता की प्रगति और सुरक्षा का साधक दण्ड हो है । भली-भांति सोच-विचार कर जब दण्ड दिया जाता है तब वह प्रजा को धार्मिक बनाता है और उसे अर्थ तथा काम पुरुषार्थो की प्राप्ति में लगाता है । परन्तु जब अविवेकपूर्ण ढंग से दण्ड का प्रयोग किया जाता है तो उस से संन्यासियों में भी क्रोध उत्पन्न हो जाता है फिर गृहस्थियों का तो कहना ही क्या । किन्तु फिर भी दण्ड का प्रयोग परम आवश्यक है । यदि इस का प्रयोग नहीं किया जाता तो बलवान निलों को नष्ट कर देते है ।
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अन्यायपूर्ण ढंग से दिये गये दण्ड से होने वाली हानि को ओर संकेत करते हुए आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि जो राजा अज्ञानतापूर्वक और क्रोध के वशीभूत होकर दण्डनीति शास्त्र की मर्यादा का उल्लंघन कर के अनुचित ढंग से दण्ड देता है, उस से समस्त प्रजा के लोग द्वेष करने लगते हैं (९, ६) । न्यायी राजा को अपराध के अनुरूप न्याययुक्त दण्ड देकर प्रजा को श्रीवृद्धि करना चाहिए ।
बतलाया है। मनु का सोते है तब दण्ड ह्री
उपर्युक्त विवरण का आशय यही है कि समाज में शान्ति एवं व्यवस्था रखने के लिए दण्ड की परम आवश्यकता है। इस के अभाव में मारस्यन्याय उत्पन्न हो जाता है। राजा को दण्डनीति का ज्ञाता होना चाहिए तथा इस का प्रयोग न्यायपूर्वक करना चाहिए। ऐसा करने से ही प्रजा को धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती हूँ । आन्वीक्षिकी, श्रयी और वार्ता की उम्मति और कुशलता का साधक दण्ड ही है ।
१. मनु०७, १०
एवाभिरक्षति ।
०४ शास्ति प्रजाः सर्वा दण्डः सुप्तेषु जागतिं दण्डं धर्म विदुधाः । २. को अर्थ ० १.४ ।
३. नही
विज्ञाप्रणीत हि वः प्रजा धर्मार्थकामै योजयति दुष्प्रणीत कामकोधाभ्यामज्ञानप्रस्थपरं राजकानपि को किमन पुनर्गृहस्थाइ ।
सोमदेवसूरि और उन का नीतिवाक्यामृत
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