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अध्याय -1
जैन-विद्याओं में शोध (1983-1993) : एक सर्वेक्षण
सामान्यतः जैन विद्याओं में शोधकार्य के तीन रूप उपलब्ध होते हैं1. उपाधि-निरपेक्ष, 2. उपाधि-सापेक्ष एवं 3. उपाधि-उत्तरी शोध। यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम और तृतीय कोटि की शोध का अनुपात उपाधि-सापेक्ष कोटि की तुलना में 2:1 होता है, तथापि विद्वत्-जगत् उपाधि-सापेक्ष शोध को ही प्रधानता देता है। इसके दो कारण हैं : 1. शिक्षा संस्थानों द्वारा मान्यता तथा 2. आजीविका प्राप्ति में वरीयता। यही कारण है कि जब भी शोध की चर्चा होती है या उससे सम्बन्धित जानकारी की जिज्ञासा होती है, तो उपाधि-सापेक्ष शोध का ही विवरण दिया जाता है। दूसरी बात यह भी है कि उपाधि-सापेक्ष शोध 'यूनिवर्सिटी न्यूज' या विश्व की अन्य संस्थाओं द्वारा संप्रसारित की जाती है, जबकि अन्य शोधों के संप्रसारण की कोई व्यवस्था नहीं होती। इस दिशा में किंचित् व्यवस्था होनी चाहिये। हां, आजकल कुछ विद्वानों के शोध-निबन्धों का प्रकाशन होने लगा है : युगवीर निबन्धावली, उपाध्ये पेपर्स, सागर जैन-विद्या भारती आदि। यह अनुकरणीय परम्परा है। उपाधि-निरपेक्ष जैन विद्या शोध का एक संक्षिप्त विवरण पं. जगन्मोहनलाल साधुवाद ग्रंथ में अवश्य प्रकाशित हुआ है। पर यह अपूर्ण है। उसे आधुनिक स्तर तक लाने की आवश्यकता है। फलतः हम यहां केवल जैन-विद्याओं में उपाधि-सापेक्ष शोधकार्यों की चर्चा करेंगे।
विगत तीस वर्षों में जैन विद्याओं के अध्ययन और शोध के क्षेत्र एवं विषय निरन्तर वर्धमान हो रहे हैं। देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों एवं संस्थाओं में इसका अध्ययन-अध्यापन होने लगा है और अनेक अज्ञात पक्षों पर भी शोध की जा रही है। इस शोध का विवरण 1973 (डॉ. जी. सी. जैन),1983 (डॉ. सागरमल जैन) एवं 1991-93 (परिशिष्ट सहित, डॉ. के. सी. जैन) की शोध नामिकाओं में प्रकाशित हुआ है जिनसे इसकी वर्तमान स्थिति का अनुमान लगता है। इनमें प्रथम विवरण तो प्रदेशवार दिया गया है जिसमें 15 प्रदेशों के 50 विश्वविद्यालयों में किये गये शोध की सूचना है। इसके विपर्यास में, सर्वाधिक नवीन कैलाशचन्द्र जैन स्मृति न्यास द्वारा प्रकाशित शोध-सन्दों में 64 विश्वविद्यालयों में की गई विषयवार शोध की
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