Book Title: Nandanvana
Author(s): N L Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 520
________________ (500) : नंदनवन मान्यतायें अधिक हैं जो दृश्य जगत् से सम्बन्धित हैं। एक वैज्ञानिक एवं विवेकपूर्ण जिज्ञासु के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक है। उपरोक्त शंका का समाधान अब तक शास्त्रीय एवं विद्वज्जन स्तर से नहीं किया गया है। मैं यह सोचता हूं कि पच्चीससौवीं शताब्दी एक ऐसा अवसर है जब जैन शास्त्रों में वर्णित दृश्य-जगत् के विविध विवरणों पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार किये जाय और उनका तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन कर इस विषय का प्रामाणिक साहित्य प्रकाशित किया जाये। इस कार्य के लिये जहां शास्त्रीय विद्वानों के सहयोग की आवश्यकता होगी, वहीं जीव-विज्ञानी, वनस्पतिशास्त्री, प्राणिशास्त्री, पदार्थ विज्ञानी, गणितज्ञ, खगोल, भूगोल आदि विज्ञान के विभिन्न शाखाओं के ज्ञाताओं के सक्रिय सहयोग की आवश्यकता होगी। इस कार्य में कुछ शोध छात्रवृत्तियों की आवश्यकता होगी जो समुचित विद्वानों के मार्ग-दर्शन में शास्त्रोक्त तथ्यों का सांगोपांग संकलन करेंगे और तब तुलनात्मक अध्ययन कर वास्तविक निष्कर्ष प्राप्त करेंगे। इस कार्य में दो-तीन वर्ष लगने की सम्भावना है और साहित्य प्रकाशन की प्रक्रिया में पचास हजार रुपयों तक का व्यय लग सकता है। लेकिन यह व्यय आस्थाओं को बलवती बनाने के लिये आवश्यक तो है ही, ऐसा साहित्य हमारे धर्म की वैज्ञानिकता सिद्ध करने में भी सहायक होगा। हमारा विश्वास है कि विभिन्न साहित्य प्रकाशन के आयोजनों में धर्म एवं विज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन सम्बन्धी साहित्य के प्रकाशन को भी प्रमुखता देनी चाहिये। मेरा व्यक्तिगत विश्वास है और पश्चिम के कई विद्वानों की यह मान्यता है कि जैनदर्शन अन्य दर्शनों की तुलना में अधिक वैज्ञानिक एवं मनौवैज्ञानिक है। महावीर के धर्म में प्रभावना-अंग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसके अन्तर्गत स्वयं के धार्मिक कृत्यों या सामाजिक उत्सवों को दूसरे लोग देखकर प्रभावित होने की बात ही प्रमुखतः देखी जाती है। बीच में वाद-विवाद एवं शास्त्रार्थ द्वारा भी धर्म की प्रभावना बढ़ाई जाने लगी। कुछ वर्षों से धार्मिक साहित्य का प्रसारार्थ प्रकाशन एवं धर्मप्रचारक संस्थाओं का यत्र-तत्र संगठन भी धर्म प्रभावना के अंग बन गये हैं। वस्तुतः वर्तमान युग में ये दोनों बातें बड़ी महत्त्वपूर्ण हो गई हैं। महावीर के उपदेशों के प्रचार की जितनी आवश्यकता स्वदेश में है, उतनी ही विदेशों में भी है। स्वदेश में तो महावीर को लोग जानते भी हैं, विदेशों में तो वे प्रायः अज्ञात ही हैं। केवल कुछ लोगों तक ही सीमित हैं। बैरिस्टर चंपतराय जी ने अपने समय में लन्दन में जैन सोसाइटी व पुस्तकालय की स्थापना की थी। वह कुछ समय तक चलती रही, बाद में अर्थाभाव के कारण बन्द हो गई। उसके माध्यम से यूरोप के कई स्थानों में जैन साहित्य को उपलब्ध कराया गया था। कुछ समय तक उसका भी लोगों ने लाभ लिया। लेकिन यह भी प्रभावहीन केन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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