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नंदनवन
5. एशिया : जापान
जापान एशिया का प्रमुख देश है जहां जैनविद्या का अध्ययन-अध्यापन काफी समय से चल रहा है। डा. सिन के अनुसार, यह अध्ययन बौद्ध धर्म के तुलनात्मक शोध से प्रारम्भ हुआ है। उन्होंने टोकियो, क्योटो, हिरोशिमा आदि विश्वविद्यालयों से 18 पी. एच-डी. शोधकों के नाम दिये हैं। कुछ जापानी विद्वानों ने अमरीका और जर्मनी से भी शोध उपाधि पाई है। जापान में जैन अध्ययन का प्रारम्भ शिजेनोबू सुजूकी (1890-1920) के वर्ल्ड सेक्रेड बुक्स ग्रंथमाला में 'सेक्रेड बुक्स ऑव जैनीज्म' के समाहरण से प्रारम्भ हुआ। इसमें तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' और 'योगशास्त्र' तथा 'कल्पसूत्र' का जापानी अनुवाद था। प्रो. कानाकुरा (1896-1987) ने जैनधर्म पर दो पुस्तकें लिखीं और उनमें तत्त्वार्थाधिगम सूत्र, न्यायावतार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार के अनुवाद को सटिप्पण प्रकाशित किया। उन्होंने याकोवी से और उनके साथी नाकामुरा ने वाल्टर शुबिंग से जैनधर्म सीखा था। पिछले अनेक वर्षों से ओटानी विश्वविद्यालय, क्योटो में 'जापानीज सोसायटी फॉर जैन स्टडीज' स्थापित हुई है जो प्रतिवर्ष जापान में जैनविद्या शोध पर संगोष्ठी आयोजित करती है। इसके वर्तमान संयोजक काजूहितों यामामोटो हैं। कभी-कभी इनमें विदेशी विद्वान् भी आमंत्रित किया जाते हैं। जापान की मैडम ओहीरा तथा ओकाई ने भारत की एल. डी. इंस्टीस्टयूट से तत्त्वार्थसूत्र एवं भगवतीसूत्र पर काम किया है। आजकल वे भाषा विज्ञानी बन गई हैं। यहां के डा. टी. हायाशी ने जैन मैथेमेटिक्स, वखशाली लिपि तथा धवला के गणित पर काम किया है। वे भारत भी आ चुके हैं। अर्हत् वचन के सम्पादक से इनका अच्छा परिचय है। प्रो. हजीमो नाकामुरा द्रोणगिर गजाथ के समय भारत आये थे। उनके विश्व जैन मिशन के संस्थापक डा. कमला प्रसाद जैन से अच्छे सम्बन्ध थे। इन्होंने बीसवीं सदी के मध्यकाल में जापान में जैनधर्म को अच्छा स्थान दिलाया। प्रो. यामाजाकी आदि ने श्वेताम्बर ग्रंथों के पदों की सूची पर काम किया। प्रो. ए. यूनो ने 'व्याप्ति एवं प्रमाणनयतत्त्वालोक' पर काम (और अनुवाद भी) किया है। प्रो. के. बाटनावे, टोकियो ने आजीवक संप्रदाय तथा जैनों की जीव की धारणा पर काम किया है। उन्होंने 'जैनोलोजी इन वैस्टर्न पब्लिकेशन्स' भाग-1 व 2 के लेखों का सम्पादन किया है जो 1993 में प्रकाशित हुए हैं और बेलजियम के प्रो. जोसफ डेल्यू के सम्मान में संकलित किये गये थे। आजकल प्रो. फुजीनागा सिन यहां के सक्रिय जैनविद्या मनीषियों में हैं, जो अनेक बार भारत आ चुके हैं। वे अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भी भाग लेते हैं। वे श्वेताम्बरों के तेरापंथ से प्रभावित हैं। उन्होंने सर्वज्ञता पर अच्छा काम किया है। प्रो. नागासाकी ने तेरापंथ (श्वे.) पर अच्छे शोध लेख लिखे हैं। इस प्रकार जापान में जैन विद्यायें प्रगति पर हैं।
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