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नंदनवन
सकते हैं, क्योंकि चीजें पर्याप्त मात्रा में और सरलता से मिलती हैं। यही नहीं, खाने-पीने की वस्तुओं की विविधता भी यहां खूब है। उदाहरणार्थ, प्रायः सभी चीजें यहां सुरक्षित बंद डिब्बों में मिल सकती हैं, हिमीकृत भी बहुत सी चीजें मिलती हैं। मिश्रित या पृथक फलों के रस या काकटेल खूब लीजिये। पकी हुई शाकें व खीर आदि भी मिलते हैं जिन्हें केवल गरम कर नमक मिर्च डालकर आप 2,-4 मिनट में खा सकते हैं। हां इन सबके अतिरिक्त प्रकमित अन्न भी विविध रूप में मिलता है। गेहूं, चावल, जई और मक्के के कई प्रकार के प्रोटीन प्रमुख अन्न और इनके विविध प्रकार पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं। प्रायः भारतीय व्यक्ति मक्के को निम्न कोटि का खाद्य मानता है, पर यहां उसके खाद्य रूपों का औद्योगीकरण ही हो गया है और मक्के का कोई न कोई रूप नाश्ते की टेबल की शोभा बढाता है। लन्दन के मनुष्य भी विविधता प्रेमी हैं। उनके भोजन की विविधता अनुकरणीय है। यही कारण है कि कहीं भी खाने चले जायें, उन्हें भर पेट खाने में कोई परेशानी नहीं होगी। भारतीयों का हाल इससे भिन्न है। मसालेदार चटपटे भोजन के आदी होने के कारण उन्हें यह मनोरंजक बहुरूपता भी प्रारम्भ में अटपटी-सी लगती है। पर यह महंगी नहीं है। एक ट्रीड का सूट 150 रूपये में पड़ता है। नायलान टेरिलिन या अन्य कृत्रिम रेशों के बने कपड़े तो सस्ते हैं ही ? सिले-सिलायें वस्त्रों का उद्योग वहां खूब पनपा है। हर बहु-विभागीय दुकान ने अपने विशेष प्रकार के वस्त्रों को अपना रखा है। मार्क्स एण्ड स्पेंसर के सेंट माइकेल छाप के वस्त्र अपने डिजायन और आकर्षण में सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। सिले वस्त्रों के उद्योगीकृत रूप के कारण वे सस्ते पड़ते हैं और सभी प्रकार के लोग उन्हें पहन सकते हैं। इसमें संदेह नहीं कि औद्योगीकरण के इस रूप ने रहन-सहन के इस बाहरी रूप के कारण पहचाने जाने वाले वर्गभेद को समाप्त करने में बड़ा योगदान दिया है।
बम्बई और बंगलौर निकट भविष्य में सिले वस्त्रों के इस बहुप्रचलित रूप को इस मात्रा में कब तक ला सकेंगे, कहना मुश्किल है। पर यह स्पष्ट है कि मूल्यों की दृष्टि से उनकी कीमतें मार्क्स-स्पेंसर से भिन्न नहीं होंगी
और तभी मन में यह प्रश्न उठता है कि हिन्दुस्तान के मुकाबले लन्दन का मिल मजदूर कम से कम चौगुना वेतन पाता है। इस प्रकार श्रम के चौथाई मूल्य के बाद भी भारत में महंगाई क्यों हैं ? यंत्रों के बाहरी होने से इतना अधिक अंतर नहीं पड़ सकता। उनकी छीजन भी ब्रिटेन से ज्यादा नहीं हो सकती। क्या व्यक्तिगत उद्योग इतना अधिक मुनाफा कमाते होंगे ? यदि हां, तो इसका समुचित सर्वेक्षण और नियंत्रण राजकीय संरक्षण प्राप्त होता है, पर उनका अनुपात भारत के सस्ते श्रम मूल्य को लांघ जाय, यह मानने में भाग्य की विडंबना ही होगी। आयात की हुई वस्तुयें भारत में महंगी पडें, तो
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