Book Title: Nandanvana
Author(s): N L Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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बम्बई और लन्दन : (545)
ब्रिटिश शिक्षा की दूसरी विशेषता- जो उसे भारतीय शिक्षा से विशिष्ट बनाती है यह है कि वह औद्योगिक विकास पर आधारित है । सम्भवतः वर्तमान में यहां प्रति 10 हजार की आबादी पर 70-80 व्यक्तियों के लिये विश्वविद्यालयीन शिक्षा उपलब्ध होती है जो स्थिति आज भारत में बन गई है। लेकिन विशेषज्ञों का निर्माण इस गति में होता है कि उनकी खपत हो सके, उनके शिक्षण का राष्ट्र को लाभ मिल सके। यही नहीं, शिक्षा का विकास कुछ इस रूप में है कि वहां प्रत्येक तकनीकी व्यावसायिक काम के लिये आवश्यक लोग नहीं मिलते। फलतः आज वहां हजारों की संख्या में भारतीय डाक्टर, इंजीनियर और शिक्षक काम कर रहे हैं। हमारे यहां स्थिति ठीक इसके विपरीत है। यही कारण है कि हमारे यहां से अगणित प्रशिक्षित व्यक्ति बाहर जा रहे हैं । यह राष्ट्रीय सम्पत्ति का अपव्यय है, इसमें शक नहीं। इसे अन्तर्राष्ट्रीय सेवा के नाम पर समर्थन देना उचित नहीं प्रतीत होता । शिक्षा के विकास के आधार पर भी इस दिशा में एक बार पुनः गम्भीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। हां, लन्दन और बम्बई की शिक्षा के स्तर व माध्यम की चर्चा अभी मैं छोड़ दे रहा हूं ।
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प्रत्येक स्वतन्त्र राष्ट्र के जनजीवन में राजनीति इस समय पर्याप्त रूप में व्याप्त हो गई है। सच पूछिये तो, राष्ट्र के चरित्र व विकास के मापदण्ड के रूप में राजनीतिक नेतृत्व काम करता है । लन्दन और बम्बई की राजनीति और राजनीतिज्ञों में कहीं समानता है, यह मुझे समझ में नहीं आ सका । लन्दन की द्विदलीय प्रजातंत्रीय राजनीति बम्बई की बाह्य व आन्तरिक गुटबन्दी से भरी बहुदलीय राजनीति से बिलकुल भी मेल नहीं रखती । लन्दन की राजनीति में जो स्पष्टता है, राष्ट्रवाद है, एक निर्दिष्ट पथगामिता है, वह बम्बई में कहां ? यह भी स्पष्ट है कि जनमन बनाने के साधनों के रूप में लन्दन के समाचार पत्र जो नेतृत्व कर रहे हैं, वह बम्बई में दृष्टिगोचर नहीं है। आज के व्यस्त जीवन में जनता कितने दलों की बातें सुने और समझे ? भारत की व्यक्ति प्रधान राजनीति लन्दन से शायद ही कभी मेल खा सके ।
ऊपर मैने कुछ ऐसे सामान्य रूपों का विवरण प्रस्तुत किया है जो कोई भी बम्बई और लन्दन देखने वाला भांप सकता है। इन रूपों की विभिन्नता स्पष्ट है और मुझे हर समय उक्त डाक्टर सज्जन का ध्यान आता है जिन्होंने बम्बई और लन्दन को एक-सा बता दिया था। सचमुच ही, आज हमें विभिन्न देशों व क्षेत्रों को सरसरी दृष्टि से नहीं, अपितु सूक्ष्म दृष्टि से देखने की जरूरत है। तभी हम उन देशों की प्रगति के कारणों को भलीभांति परिज्ञान कर उनके अनुभावों से लाभ उठा सकेंगे।
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