Book Title: Nandanvana
Author(s): N L Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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परिशिष्ट 5
मेरे सखा, मेरे गुरु, मेरे भाई नन्दलाल
मेरे सखा मेरे गुरु मेरे भाई नन्दलाल मन ही मन न माला जपी चुपचुप न चॉपा माल विचार चातुर्य से चली ऐसी चतुर्विध चतुरचाल कि जाना दुनियां के कोने-कोने का हालचाल देश विदेश में बिछ गया तेरे भाल का कमाल
घेरे रखा शुरु से ही पढ़ने-पढ़ाने का जाल मेरे सखा मेरे गुरु मेरे भाई नन्दलाल
अभावों में पल-पल कर बिन छल बल शून्य भावों में भी सुविधा जुटाते अटल सर्वदर्शनाचार्य में प्रतिष्ठित प्रथम सबल संगसंग एम.एस-सी. पाया उच्चतम सफल
पढ़ना पढ़ाना यही रही सदा आपकी चाल मेरे सखा मेरे गुरु मेरे भाई नन्दलाल
शिक्षा विभाग में जब पद पाया व्याख्याता फिर भी लगा तुम्हें अभी कुछ नहीं आता कुछ आता पर मर्मज्ञमन गागर भर न पाता अन्वेषण करने छोड़ दिया स्वदेश अहाता
बिन मालामाल लंदन में खपाया कपाल मेरे सखा मेरे गुरु मेरे भाई नन्दलाल सतत् श्रमण भाल भ्रमण से खुला पी-एच. डी. खाता बधाईयां पाने स्वांग असम सक्षम क्षमा को छकाता सरस्वती सजती सौत जहां क्षमा को कहां सुहाता . पहुंच स्वयं गई क्षमा पर स्वर क्षमा कैसे कर पाता
विदेशों में बने भारतीय दर्शन के दलाल मेरे सखा मेरे गुरु मेरे भाई नन्दलाल
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पाया ज्ञान अपार बॉट रहे जिसका नहीं पारावार हजारों विद्यार्थी करें डाक्टर इन्जीनियरी कारोबार पुत्र-पुत्रियां भी बने डाक्टर इन्जीनियर हर प्रकार धुआंधार ज्ञान विज्ञान के प्रसार से रहा सरोकार
बेटे बेटियों का पाकर प्यार हुये लाल गुलाल मेरे सखा मेरे गुरु मेरे भाई नन्दलाल सन उन्नीससौअठासी तक रहे शासकीय सेवा में संलग्न फिर देश विदेश में कर रहे विज्ञान वितरण निर्विघ्न सब शिष्य हैं नतमस्तक कोई नहीं हो सकता कृतघ्न शताधिक वर्षों तक रहेगी यही सौभाग्यमयी शुभलग्न
विश्वास है मेरा विश्व में रहें सदा बहाल मेरे सखा मेरे गुरु मेरे भाई नन्दलाल ।।
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शिखरचन्द्र लह
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