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अध्याय - 23
अ. महावीर जयन्ती पर विचार (1952)
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हमने सभा में महावीर को विविध दृष्टिकोणों से उपस्थित करने का प्रयास किया। यह सही है कि मैं उस पीढ़ी का अनुकरणी नहीं हूं जिसमें एकपक्षीय मत की स्वीकृति ही अभीष्ट है, पर मैं उस ओर का भी व्यक्ति नहीं हूं कि सत्य का अनुशोध यदि किसी ने किया है, तो उसकी प्रामाणिकता की जांच न की जाये। मैं समन्वयवादी हूं, फलतः दिगम्बर एवं श्वेताम्बराभिमत दोनों धारणायें मैने सभा में वीर-जीवन के सम्बन्ध में स्पष्टतया कहीं। कुछ समाज के कर्णधार इससे अन्यमनस्क हुये हों, ऐसा मानने में मुझे आपत्ति नहीं हैं पर उनसे विस्तृत दृष्टिकोण बनाने का अपना आशावाद मुझे बना ही लेना चाहिये।
साधारणतया महावीर के उपदेश द्विमुखी थे, एक तो तत्कालीन अव्यवस्थाओं (सामाजिक), समस्याओं का उचित हल देना तथा दूसरा भौतिक समृद्धि को आत्मविकास की सीमा पर पहंचाना। आज के युग की भी यही मांग है। जब लोग अन्न और वस्त्र के लिये त्राहि-त्राहि कर रहे हों, आत्मिक विकास और दर्शन की बात करना कुछ जंचता नहीं है। कहा भी तो है, "भूखे भजन न होहि गोपाला' सही बात है। हमारे पौराणिक काल की उन्नति शान्त और अच्छे वातावरण में ही सम्भव हो सकी। इसके प्रमाणस्वरूप विभिन्न पुराणों में किये गये सामाजिक स्थिति के वर्णन उपलब्ध हैं। हम भूखे रहें और आत्मा का विकास कर लें क्या सम्भव है ? महावीर की अहिंसा और वैराग्य-ये दो शक्तियां निर्बल का बल नहीं, अपितु सबकी क्षमता की अधिक द्योतन करती हैं। हम सशक्त होकर विरोधी पर क्षमा बरसायें, भोगोपभोग सामग्री के रहते उसे छोड़ें, यही महान बल है और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह काफी अनुभव में आता है। मेरी ही घटना ले लीजिये। आज एक कसरिया घी के रहने पर खर्च कम होगा, बजाय फुटकर-फुटकर खरीदने के। न्यूनता असन्तोष और मानसिक परिग्रह की जननी है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। महावीर के अनुयायियों का गौरव तभी बढ़ेगा, जब वे अपने ही समान सभी मानवों को सुखी बनाकर अध्यात्ममार्गी बनने का उपदेश दें। इस प्रकार, अहिंसा और वैराग्य की
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