Book Title: Nandanvana
Author(s): N L Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 560
________________ (540) : नंदनवन डिग्रीधारी भारतीय विविध शरीर श्रम के काम करते नजर आते हैं और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। हम नहीं कह सकते कि यदि उन्हें भारत में इतना वेतन देकर वही काम करने को मिले, तो वे उतने ही प्रसन्न रहेगें ? जहां भी श्रम का सम्बन्ध होगा, लन्दन, बम्बई से महंगा पड़ेगा। नाई की दुकान पर 1,50-3,50 रू. तक में आपकी हजामत बनती है। बम्बई में अधिक से अधिक 1 रू. लगता है। धोबी के यहां एक कमीज की धुलाई 50-60 पैसे पड़ जाती है। जूते की पालिश में ही 0,35-0,50 रू. खर्च होते हैं। श्रम की इस मंहगाई के फलस्वस्प ही लन्दन में बम्बई के मुकाबले श्रम प्रतिष्ठा ज्यादा है और मेरा ध्यान है कि श्रम की प्रतिष्ठा ही प्रगति का मूल है। वहाँ लोग प्रायः सभी काम स्वयं करते हैं। यही नहीं, दूसरों से श्रम का उपयोग करने के बदले लोग श्रमहारी यंत्रों का अधिक उपयोग करने लगे हैं। जहां तक बन सकता है, जितना बन सकता है, स्वयं श्रम कर अपना काम चलाते हैं, इससे आर्थिक बचत तो होती है, कुछ आनन्द भी मिलता है। जूते की पालिश, बर्तन सफाई, वस्त्र सफाई, घर सफाई आदि के अतिरिक्त मकान की सुरक्षा व सज्जा, बगीचे की देखभाल आदि में मनोरंजनपूर्वक अपने समय के सदुपयोग का भी लन्दन में अनुभव होता है। अपवादों को छोड़कर, हम भारतीय विद्यार्थी व व्यक्ति यहां आकर इन सब कलाओं में पारंगत होते हैं। मजा यह है कि जब उच्चतर शिक्षित होकर वह पुनः भारत जाता है, तो उसकी ये कलायें न जाने कहां चली जाती हैं ? यही नहीं, दूसरे के श्रम की अधीनता और भी तीव्रतर बन जाती है। इस परिवर्तन का रहस्य हमारी समझ में तो अभी तक नहीं आ पाया है। हमारा अनुमान है कि भारत की प्रगति श्रम की प्रतिष्ठा में निहित है। उसे श्रम प्रतिष्ठा की पूजा नहीं, उसका व्यावहारिक रूप चाहिये। इसका अर्थ है - शरीर व मन के श्रम के मूल्यों में अभी जो 15-20 गुना अन्तर है, उसके न्यूनतम वेतन का निर्धारण इसी आधार पर होना चाहिये। आर्थिक स्थिति से ही मानव की प्रतिष्ठा व समता का आभास होता है। यह स्पष्ट है कि यह प्रक्रिया प्रचलित धर्मप्रेमी भारत के लिये सबसे अधिक क्रान्तिकारी है। श्रम की इस आर्थिक व सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ लन्दन के निवासियों की मनोवृत्ति का भी घनिष्ठ सम्बन्ध है। हमें भारत में पढ़ाया जाता है कि अन्न से मन का निर्माण होता है। मासांहारी अन्न से शरीर के अतिरिक्त, अस्थिर नाड़ी संस्थान वाला मन बनता है। मन अधिक भावुक व उग्र होता है। बहुत से मामलों में यह सत्य भी है, पर यहां के लोगों के मुस्कुराते हुये चेहरों से फूटती हुई कोमल और मधुर वाणी से कोई भी भोजनजनित भावुकता, उग्रता का अनुमान नहीं कर सकता। उलटे उसे उक्त भारतीय तथ्य पर संदेह ही होने लगता है। इसी प्रकार, विभिन्न राष्ट्रीय सामाजिक संगठन और गिरजाघरों द्वारा आयोजित समाज और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592