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हरिवंशपुराण में विद्याओं के विविध रूप : (525)
इसी कोटि में आता है, जबकि आठवीं सदी में आगम लुप्त (?) या परिष्कृत हो चुके थे और लोक की स्थिति भी पर्याप्त परिवर्ती थी। इसमें अनेक प्राचीन सामाजिक परम्परायें भी वर्णित हैं जिनमें बहु-विवाह प्रथा, विजातीय-विवाह, पिता-पुत्री (रक्षा-मनोहरी, 17वां सर्ग) तथा वेश्या-पुत्री विवाह (चारू-चंद्र-कामपता का सर्ग 19) आदि समाहित हैं। ये सभी राजवंशों की परम्परायें हैं। सामान्यजन इनसे अप्रभावित ही रहते होंगे। अनेक धार्मिक परम्पराओं में पंचामृत अभिषेक और महिलाओं द्वारा अभिषेक की सूचना है। इसके अतिरिक्त, तत्त्वविद्या यथास्थित है, पर वेद आर्ष और अनार्ष के रूप में वर्णित हैं। युद्धकला के विविध रूप भी निदर्शित हैं। इनसे तत्कालीन विभिन्न परम्पराओं के अस्तित्व का भान होता है। इसके अनेक विवरण प्राचीन मान्यताओं से किंचित् भिन्न भी प्रतीत होते हैं। उदाहरणार्थभगवान के केवल ज्ञान प्राप्ति के बाद विहार करते समय उनके चरणों के आगे-पीछे और नीचे 15 कमलों की श्रेणियां (225 कमल) रहती थीं। ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय तक जैनों में बीसपंथी परम्परा तथा गुजरात में हिन्दुओं की मान्यताओं का प्रभाव पड़ चुका होगा। इसी प्रकार, 56वें सर्ग में ध्यान के भेद-प्रभेदों का विवरण तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं से अधिक विकसित है। समवसरण के तीसरे कोठे में आर्या : एवं आर्यिका का स्थान बताया है, श्राविकाओं को छोड़ दिया जो त्रिलोकप्रज्ञप्ति के 4.858 के 'अज्जियाओं - सावइयाओं से मेल नहीं खाता। इसमें सप्त व्यसनों का प्राथमिक नियमों के रूप में उल्लेख हैं, पर आठ मूलगुणों का नहीं दिखता। इससे पता चलता है कि श्रावकों के आठ मूलगुणों की धारणा आठवीं सदी से उत्तरवर्ती है। इसी प्रकार, उपरोक्त धार्मिक परम्परायें भी प्राचीन विचारधारा से मेल नहीं खातीं। तीर्थकरों के विवरण में जन्मोत्सव के बाद सीधे विवाह या दीक्षा का वर्णन है, उनके बहुविध विद्याओं के शिक्षण का कहीं विवरण नहीं है (दूसरा सर्ग आदि)। प्रत्येक तीर्थकर अनेक कलाओं और विद्याओं में पारंगत होता है। इसके विपर्यास में, अनेक अन्य व्यक्तियों के चरित वर्णन में अनेक प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है। इस लेख में हम इस ग्रंथ में वर्णित विद्याओं के विषय में चर्चा करेंगे। 'विद्या' शब्द का अर्थ __आचार्य महाप्रज्ञ' ने 'विद्या' की परिभाषा करते हुये बताया है कि "सा विद्या या विमुक्तये।' यहां विमुक्ति का अर्थ अज्ञान, संवेग और संवेदन के अतिरेक, निषेधात्मक प्रवृत्ति और संस्कारों से मुक्ति के रूप में लिया जाता है। यह आत्महित प्रेरक आध्यात्मिक परिभाषा है। इसके विपर्यास में,. न्याय-विनिश्चय आदि ग्रन्थों में 'विद्या' को वस्तु के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान के रूप में बताया गया है। यह शास्त्रोपजीवन, आत्महिताहित ज्ञान एवं परालब्धियां प्राप्त करने के रूप में भी मानी जाती हैं। यह सब 'विद् ज्ञाने'
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