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अध्याय - 22
बम्बई और लन्दन (भारत और ब्रिटेन के दर्पण)
विदेश प्रस्थान करने से पहले हमने कुछ दिन पूर्व ही लन्दन से लौटे हुये डॉक्टर सज्जन से पूछा, "लन्दन के विषय में कुछ जानकारी व निर्देश दीजिये।" उन्होंने शराब के नशे में चूर भरी-सी स्थिति में कहा, “बम्बई गये हो ? बस, बम्बई जैसा है।" बहुतेरे अनुभवी लोगों से प्रायः इसी प्रकार के उत्तर मिलते हैं जिनसे बेचारा अनजान आश्वस्त होने के बदले, यही सोच कर रह जाता है कि स्वयं अनुभव ही ऐसी जिज्ञासाओं का सर्वश्रेष्ठ उत्तर है। सच पूछिये, तो बम्बई और लन्दन जनसमुदाय और यातायात साधनों की सरलता में शायद एक हो, पर अन्य सभी मामलों में भिन्न है। उदाहरणार्थ- लन्दन के विक्टोरिया पर उतरते ही आपको अपने अजनबी और अकेलेपन और विदेशी होने का तुरन्त अनुभव होने लगता है। जहां बम्बई के गेहुंये रंगप्रधान जनसमुदाय में आप अपने को स्वयमेव विलीन पा लेते हैं, लन्दन के गौरवर्ण–प्रधान समुदाय में आप की पहली उपस्थिति “संग्रहालय के नमूने" जैसी होती है, जब बहुत सी आंखें आपकी ओर घूरती हुयी दिखती हैं। पर हां, लन्दन के 'विक्टोरिया पर वह जनसमुदाय भी कहां जो बम्बई के विक्टोरिया पर दिखता है। बम्बई में हम 80-90 प्रतिशत व्यक्तियों से अपनी भाषा में सरलता पूर्वक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं, नवागंतुक को यहां हप्तों अजीब-सा लगता है। यह सही है कि उत्तर देने वाले सज्जन अपनी मातृभाषा के व्यावहारिक प्रयोग को संभालकर प्रदर्शित करने का प्रयत्न करते हैं, पर प्रारम्भिक दिनों में भाषा की अजीबता भी बम्बई और लन्दन को भिन्न करती है। शायद, आंग्ल भारतीयों के लिये ऐसी अजीबता न प्रतीत होती हो। पर जब हम कुछ दिनों बाद लखनऊ से आये हुये रेल विभाग के प्रशिक्षार्थियों से मिले, तो हमें लगा कि उन्हें भी ऐसी परेशानी हो चुकी है। विक्टोरिया से निकलते ही लन्दन में एक ओर बाजार शुरू हो जाता है, जहां की दुकानें बम्बई की दुकानों से अपने आकार-प्रकार और साज-सज्जा में भिन्न होती
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