Book Title: Nandanvana
Author(s): N L Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 543
________________ अध्याय - हरिवंशपुराण में विद्याओं के विविध रूप पुराण की परिभाषा और लक्षण सामान्यतः 'पुराण' शब्द का अर्थ कल्पित या ऐतिहासिक प्राचीन (या अर्वाचीन ?) कथानक, आख्यान, अनुश्रुति या मिथक के वर्णन करने वाले ग्रंथों की कोटि के रूप में लिया जाता है। वैसे भी 'पुराण' शब्द से ( पु - शक्तिमान, रा - राजा या महापुरुष, ण-मणिमाला) प्राचीन ( और अर्वाचीन भी) शक्तिमान उद्धारक (या विनाशक) लोकोत्तर महापुरुषों के जीवन की मणिमाला का भान होता है। पुराण ग्रन्थों का आदि स्रोत तो दृष्टिवाद पूर्व का प्रथमानुयोग खण्ड है जो लुप्त माना जाता है। पर उसकी परम्परा अविरत रूप से विभिन्न रूपों में व्यक्त होती रही है। जैनों के अनुसार, सठशलाका पुरुषों के चरित्रों का वर्णन करने वाले ग्रन्थ मुख्यतः इस कोटि में आते हैं। Jain Education International 21 पुराण ग्रंथ साहित्य के विविध रूपों में से एक हैं जिनके वर्णनों में साहित्यिक सौष्ठव ( अलंकारिकता, कल्पनाशीलता आदि के रूप में ) भी पाया जाता है। इससे इनकी रोचकता सभी प्रकार के पाठकों के लिये मनोहारी होती है । इनका उद्देश्य 'चरितों' के माध्यम से 'अनैतिक प्रवृत्तियों के निग्रहण' तथा 'धार्मिक वृत्तियों के पल्लवन' को प्रेरित करना है। इसलिये इनमें संसारी जीवों के विकृत और आदर्श दोनों रूप प्रस्तुत किये जाते हैं जिससे सामान्यजन भी 'कर्तव्य - अकर्तव्य' का निर्णय कर सकें। सभी पुराण ग्रन्थ मुख्यतः भक्तिवाद के प्रेरक होते हैं। For Private & Personal Use Only काव्यकारों ने पुराण-ग्रन्थों के पांच लक्षण बताये हैं: 1. सर्ग (मुख्य कथा या सृष्टि रचना), 2. प्रतिसर्ग ( उपकथायें या विकास - विनाश), 3. वंश, 4. गत्वंतर, 5. वंशचरित । हिन्दू मान्यता के अनुसार 18 पुराण माने गये हैं। इसके विपर्यास में, जैनों ने बारह पुराण माने हैं: 1. तीर्थकर चरित, 2. चक्रवर्ती चरित्र, 3. विद्याधर चरित्र, 4. नारायण - प्रतिनारायण चरित्र, चारण-चरित, 5. प्रज्ञाश्रमण साधु चरित्र, 7. कुरुवंश चरित्र 8 हरिवंश चरित्र, 9 इक्ष्वाकुवंश चरित्र, 10. कश्यपवंश चरित्र, 11. वादि वंश चरित्र, 12. नाथवंश चरित्र | अनेक www.jainelibrary.org

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