Book Title: Nandanvana
Author(s): N L Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 541
________________ जैनविद्या संवर्धन में विदेशी विद्वानों का योगदान : (521) उपरोक्त विवरण अत्यन्त ही संक्षिप्त है। इसमें विश्व के अनेक क्षेत्रों में कार्यरत जैनविद्या-शोधकों एवं संवर्धकों की झांकी दी गई है। इसका अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि विदेशों में जैनविद्या-क्षेत्र में आगम, चरित, भाषा, पुरातत्त्व आदि की शोध आज भी मुख्यतः श्वेताम्बर परम्परा पर आधारित है। इस शोध में दिगम्बर परम्परा को नगण्य स्थान ही मिला है। अब कुछ शोधक इस ओर आकृष्ट हुए हैं। याकोबी के श्वेताम्बर-मान्य ग्रंथों के आधार पर प्रस्तुत केशी-गौतम संवाद एवं चातुर्याम संवर पर दिगम्बर किंचित् उद्विग्न हुए थे और अनेक दिगम्बर विद्वानों ने उसका प्रत्युत्तर दिया था। यद्यपि कुछ दिगम्बर ग्रंथ अब विदेशों में पहुंच रहे हैं और उनपर शोध होगा, ऐसा अनुमान है। दिगम्बर सम्प्रदाय पर शोध न होने का एक कारण यह भी है कि इसने अपने ग्रंथों को सार्वजनिक नहीं किया। यह सुज्ञात है कि धवला ग्रंथों की प्रतियां मूडविद्री से प्राप्त करने में ही 50 वर्ष से अधिक का समय लगा था। इसलिये कुछ विद्वानों (जैनी, डुंडाज) का यह कथन सही नहीं लगता कि दिगम्बर पंथ के शोध की उपेक्षा हुई है। वस्तुतः रेनो ने सही कहा था कि दिगम्बरों की तपस्या आत्मकेन्द्रित है। इसलिये विदेशों के समान स्वदेश में भी प्राचीन दिगम्बरत्व के विषय में पूर्ण ज्ञान नहीं है। अतः दिगम्बरत्व की शोध के लिये उनका साहित्य उपलब्ध कराने की ओर समाज को ध्यान देना चाहिये। इससे दिगम्बरों के विषय में अनेक भ्रातियां भी दूर हो सकेंगी। दिगम्बरों की शुद्ध और शुभ निश्चयनय एवं व्यवहारनय की कुन्दकुन्दी, बनारसीदासी, टोडरमली परम्परा भी उपलब्ध न होने से अबतक अछूती-सी बनी हुई है। यह प्रसन्नता की बात है कि विदेशों में जैनों की भव्य-अभव्य की धारणा तथा समाज विज्ञान पर कुछ कार्य प्रारम्भ हो गया है और अनेक विदेशी विद्वान् फील्ड वर्क के आधार पर इसका अध्ययन करने लगे हैं जैसा अनेक अमरीकी विद्वानों की शोधों से प्रकट है। हां, “समवसरण' पर तो काम हुआ है पर पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें, गजरथ महोत्सव, मस्तकाभिषेक, 2500वीं महावीर जयन्ती के समय की जैन एकता, समणसुत्तं, जैन-जैनेतर-सम्पर्क आदि विषयों पर शोध आवश्यक है। चूंकि विदेशियों के शोध प्रशंसात्मक या समर्थनात्मक के बदले विश्लेषणात्मक होते हैं, अतः वे इस युग के लिये अधिक उपयोगी हैं। संदर्भ 1. जैन, जे. सी.; जर्मनी में जैनधर्म के कुछ अध्येता, कै. चं. शास्त्री अभि. ग्रंथ, रीवा, 1980 पे. 511 2. जैन, हरीन्द्रभूषण; विदेशों में प्राकृत एवं जैन विद्याओं का अध्ययन, वही, 1980, पे. 516 3. कैया, कोले; जैन स्टडीज इन फ्रांस, वही, पे. 520 4. यूनो, ए.; रिसेंट जैन स्कालरशिप इन जापान, जिनमंजरी, 14.2.1990 पेज 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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