Book Title: Nandanvana
Author(s): N L Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 539
________________ जैनविद्या संवर्धन में विदेशी विद्वानों का योगदान : (519) (ब) कनाडा _अमेरिका की तुलना में कनाडा में जैनविद्या उन्नायकों की संख्या तथा केन्द्र आशा के अनुरूप नहीं है। यहां मैकमास्टर, टोरन्टो, मैगिल, तथा केलगेरी विश्वविद्यालय जैनविद्या अध्ययन के केन्द्र हैं। यहां भारत-मूल के मिस्सीसोगा के डा. एस. ए. बी. कुमार ब्राह्मी सोसायटी, "जिनमंजरी' पत्रिका तथा ह्यूमनिटी प्रेस के प्रकाशनों के माध्यम से जैन धर्म का विश्वस्तरीय संवर्धन कर रहे हैं। इन्होंने 'जैनीज्म इन नार्थ अमेरिका पर नीउ मैक्सिको विश्वविद्यालय से शोध-उपाधि प्राप्त की है। विंडसर के डा. एस. के. जैन ने भी पश्चिम में जैनविद्याओं की मान्यता को स्थापित करने में योगदान किया है। मैकमास्टर की मैडम फाइलिस ग्रानोफ ने जैन कथाओं पर शोध किया है और उनके निर्देशन में अनेक कनेडियन तथा जापानी छात्रों ने शोध की है। वे 'जर्नल आव इंडियन फिलोसोफी' भी प्रकाशित करती हैं। ईश्वरवाद विरोधी गुणरत्न के तर्कों को उन्होंने अंग्रेजी में प्रस्तुत किया है। टोरंटो के ओकोनेल एवं वागले जी ने कुछ समय पूर्व एक 'जैनविद्या सेमिनार आयोजित किया था। वे पी. एस. जैनी के सम्मान में आयोजित गोष्ठी के शोध-पत्र भी प्रकाशित कर रहे हैं। वहां जैनविद्या पर शोध भी होती है। मैगिल के प्रोफेसर अरविंद शर्मा भी जैनधर्म के संवर्धन में अनेक पुस्तकें एवं लेख लिखते रहते हैं। केलगेरी के प्रो. बार्कर भी जैनविद्या के उन्नायकों में प्रमुख स्थान रखते हैं। ओटावा के डा. ह्यूमर ने अपने विश्वविद्यालय में पर्याप्त जैन साहित्य मंगा रखा है। मैडम अइरीना उपेनिक्स तो जैन ही बन गई हैं। उन्होंने अपने साहित्य एवं भाषणों से जैनधर्म को पश्चिम में लोकप्रिय बनाया है। अनेक शोधकों के कारण यह आशा की जा सकती है कि कनाडा में भविष्य में जैन विद्यायें और भी प्रगति करेंगी। 3. दक्षिणी अमरीका दक्षिण अमरीका में जैनविद्याओं के उन्नायकों के विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है। पर साओ पावलो के डा. फोन्सेका तथा अरजेन्टीना के डा. ड्रागोनेट्टी वहां जैनविद्याओं पर शोधकार्य कर रहे हैं। 4. ऑस्ट्रेलिया आस्ट्रेलिया में भी जैनविद्या के अध्ययन एवं अध्यापन के विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। फिर भी, वहां केनबरा की आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी में जैनविद्याओं का अध्ययन अध्यापन होता रहा है। वहां प्रो. ए. एल. वाशम ने आजीवकों तथा 'दी वंडर दैट वाज इंडिया' की पुस्तकों के माध्यम से बीसवीं सदी में जैन सिद्धान्तों के विश्वस्तरीय परिज्ञान में महती भूमिका निभाई है। यहां मैडम हरकुस और डी. जोंग भी हैं जो जैनविद्याओं का अध्यापन, करते हैं। आर. बाइल्स के साथ डी. जोंग ने 'निरयावलियाओ' का अनुवाद डेल्यू के टिप्पणी के साथ प्रकाशित किया है (1996)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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