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नंदनवन
कनिष्क और शातवाहन वंशों पर भी काम किया। फ्रांस के ही लुई रेनों ने जैनधर्म का अध्ययन कर लंदन में जोर्डन व्याख्यानमाला में व्याख्यान दिया था। ऐतिहासिक दृष्टि से इन्होंने सप्रमाण यह सिद्ध किया कि चन्द्रगुप्त 313-312 ईसापूर्व में गद्दी पर बैठे थे (पोलिटिकल हिस्ट्री आव इंडिया अपटू सेवन्थ सेंचुरी ए. डी. 1947)। इन्होंने दक्षिण के जैन शिलालेखों के समय का पुनर्निर्धारण भी किया। इस तरह, उन्होंने जैन इतिहास के आलोचनात्मक अध्ययन का सूत्रपात किया। रेनो और फिलेजा की पुस्तक के आधार पर अनेक फ्रेंच एवं अंग्रेजी विश्वकोशों में जैनधर्म के विविध कोटि के विवरण प्रकाशित हुए। रेनो ने श्वेताम्बरों के तेरापन्थ सम्प्रदाय पर भी काम किया। वे अपनी पत्नी के साथ तेरापन्थ केन्द्र ‘राजलदेसर' भी 1949 में गये थे जिसका विवरण उन्होंने अपनी एक पुस्तक में भी दिया है।
वर्तमान में फ्रांस में अनेक जैनविद्या मनीषी हैं, जो इस सदी के उत्तरार्ध से अपने पूर्ववर्तियों से प्रेरित होकर जैन विद्याओं के विविध पक्षों पर शोध कर रहे हैं। इनमें डा. कोले कैया और डा. नलिनी बलबीर प्रमुख हैं। डा. कैया ने छेदसूत्रों पर काम किया है और वे समाधि एवं सल्लेखना प्रक्रिया की विशेषज्ञ हैं। इन्होंने 'चन्दवेज्झय' का सम्पादन किया है। इनके कुछ ग्रंथ एल. डी. इंस्टीटयूट, अहमदाबाद से प्रकाशित हैं। इनके शोध-लेखों की संख्या अगणित है। ई. फिशर और डा. रवीन्द्र कुमार ने मिलकर 'जैन कॉस्मोलोजी' (सचित्र, अंग्रेजी) लिखी है, जो प्रकाशित होकर यूरोप व अन्य देशों में लोकप्रिय हुई है। इनके निर्देशन में डा. नलिनी बलवीर जैसी अनेक विदुषी और विद्वानों ने शोध-उपाधि प्राप्त की है। डा. बलवीर ने 'दानाष्टक कथा' पर शोध की है और वर्तमान में भाष्यों एवं कथाओं पर काम कर रही हैं। इन्होंने 'जैन साधुओं की आत्मकथा' पर भी काम करना प्रारम्भ किया है। कु. चोजनाकी पेरिस में ही 'विविध-तीर्थकल्प' का फ्रेंच अनुवाद कर रही हैं। सुश्री ओशिये 'धूर्ताख्यान' और 'धर्मपरीक्षा के तुलनात्मक अध्ययन में लगी हैं। डा. मैथियास जैन आहार विज्ञान पर काम कर रही हैं। सुश्री पियरी एमियेल ने फ्रेंच में जैनधर्म पर एक पुस्तक लिखी है जिसका अंग्रेजी अनुवाद ह्यूस्टन की एक संस्था से प्रकाशित हुआ है। इस प्रकार फ्रांस में भी जैन शोधकों की संख्या में क्रमश वृद्धि हो रही है।
बेल्जियम भी जैन विद्याशोध का पुराना केन्द्र रहा है। यहां के डा. जे. डेलियू जर्मनी के डा. शुबिंग के शिष्य थे। उन्होंने 'महानिशीथ' और 'भगवतीसूत्र' पर काम किया है। इसके पुत्र ने राजशेखर सूरि के 'प्रबन्धकोश' पर काम किया है। यही से डा. बोंशे ने हरिभद्र की 'अनेकान्तजयपताका' पर काम किया है। अभी डी एवां क्लर्क ने स्वयंभू के
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