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विदेशों में धर्म प्रचार-प्रसार की योजना : (501)
हो गया है। लेखक को दोनों ही केन्द्रों को देखने का अवसर मिला और उसे इस बात का अत्यन्त दुःख है कि इतने धनिक समाज के रहते हुए इन केन्द्रों की व्यवस्था मात्र अर्थाभाव या कुछ आलमारियों के अभाव के कारण नहीं हो सकी। विश्व जैन मिशन के संचालक स्वर्गीय कामता प्रसाद जी की बड़ी इच्छा रही है कि जैन धर्म व महावीर के उपदेशों के प्रसार के लिये विदेशों में कुछ प्रयास किया जाये। इस कार्य के लिये उन्हें किसी ने भी किसी प्रकार आर्थिक दृष्टि से प्रोत्साहित नहीं किया। फलतः न तो वे इन केन्द्रों को ही व्यवस्थित करा सके और न उपर्युक्त स्वप्न ही साकार करने में समर्थ हो सके। पच्चीससौवीं शताब्दी के अवसर पर हमारा यह पुनीत कर्तव्य है कि हम विश्व के सभी महाद्वीपों में कम से कम एक-एक स्थायी केन्द्र स्थापित करें। यह टोकियो, न्यूयार्क, सिडनी, लन्दन और अफ्रीका में स्थापित किया जा सकता है। स्थान का चुनाव प्रतिनिधि मण्डल करे जो इस अवसर पर विश्व के विभिन्न भागों में महावीर के संदेशों के प्रचारार्थ पर्यटन करे। यदि एक मण्डल पूरा समय न दे सके, तो दो मण्डल ऐसे पुनीत सांस्कृतिक कार्य के लिये नियत किये जा सकते हैं। इन प्रतिनिधि मण्डलों पर कोई एक लाख रुपया खर्च पड़ेगा, लेकिन यह प्रभावशीलता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होगा। ऐसा अनुमान है कि विदेशों में एक केन्द्र चलाने के लिये कोई एक हजार रुपये (1969 में) महीने का खर्च पड़ता है। इस प्रकार पांच केन्द्रों के लिये कोई साठ हजार रुपये साल का खर्च होगा। ऐसा प्रयत्न सर्वत्र किया जा सकता है कि ये केन्द्र स्थायी रूप से चलते रहें। इसके लिये प्रारम्भ में कुछ अधिक धनराशि खर्च करनी पड़ सकती है। इस धनराशि का कुछ अंश विदेशों में बसे जैन बन्धु एवं जैन धर्म प्रेमी भी दे सकेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इस विषय में एक क्रमबद्ध योजना बनाने का काम और विदेशों में सम्पर्क स्थापित करने का काम अभी से चालू कर दिया जाना चाहिये जिससे उन्नीस सौ चौहत्तर तक वह सक्रिय रूप से कार्यान्वित किया जा सके। रामकृष्ण मिशन तथा अन्य संस्थायें इस विषय में हमारी मार्गदर्शक हो सकती हैं। इन्होंने अपने ऐसे भवन खरीदे या बनाये, जो किराये आदि के माध्यम से 'चालू खर्च' तथा कार्यकर्ताओं के आवास-निवास की व्यवस्था करते हैं। यह प्रक्रिया हम भी अपना सकते हैं। __ मेरा मत है कि पच्चीससौवीं शताब्दी के पुनीत अवसर पर उक्त दोनों कार्यों को अखिल भारतीय आयोजनों का एक प्रमुख अंग बनाया जाना चाहिये। आशा है, समाज के अग्रणी इन कार्यक्रमों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करेंगे। लेखक इस दिशा में भरपूर सहयोग कर सकेगा।
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