________________
(512): नंदनवन
भी प्रकाशित हुआ । 'भारत : जर्मन विचारकों की दृष्टि में भी उनकी एक जर्मन पुस्तक 1960 में प्रकाशित हुई। उन्होंने भारत की यात्रा की थी और जैन समाज से आदर पाया था ।
यह सचमुच ही ज्ञानवर्धक तथ्य है कि श्री लुडविग आल्सडोर्फ (1904 - 1978) जर्मनी के प्रकाण्ड जैन विद्यामनीषी थे। उन्होंने विभिन्न धर्मों एवं भाषा - विज्ञान सम्बन्धी गहन अध्ययन किये हैं। इसी पर उन्होंने पी. एच डी. प्राप्त की। ये शुब्रिंग को अपना गुरु मानते हैं। वे हैम्बुर्ग में प्रोफेसर रहे। इन्होंने गुजरात के राजा कुमारपाल से सम्बन्धित साहित्य को सम्पादित कर प्रकाशित किया है। लायमान तथा याकोबी ने इन्हें अपभ्रंश पर काम करने का संकेत दिया जिससे उन्होंने पुष्पदन्त के महापुराण का विस्तृत भूमिका सहित सम्पादन किया। उन्होंने 'वसुदेवहिंडी' को सम्पादित कर उसकी भाषा को पैशाची प्राकृत के ग्रंथ 'बढ्ढकथा' का रूपान्तर बताया । उनके दर्शन भारत में इस लेखक ने भी किये हैं और तेरापन्थ के साधुओं से जो उनकी चर्चा होती थी, वह 'विश्वकोश के समान लगती थी । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उन्होंने निर्युक्ति, चूर्णि और भाष्य पर काम करना चालू किया था। वे अपने शिष्यों को इन प्राचीन ग्रंथों पर काम करने के लिये प्रेरित करते थे। यह भी एक मनोरंजक तथ्य है कि प्रो. आल्सडोर्फ ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जर्मन पढ़ाई है और यहीं उन्होंने संस्कृत सीखी है। अपने संस्कृत ज्ञान के बल पर ही अनेक बार उन्हें अनार्यत्व से मुक्ति तथा मन्दिर प्रवेश मिला। इनके लेखों का एक 762 पृष्ठ का संग्रह 1974 में प्रकाशित हुआ है । लीबज़िग से शोध-उपाधि लेने वाली डा. शारलोट क्राउने (1895-1980) तो जैन श्राविका ही बन गई थीं। उन्होंने कहा कि जैनों के अनेक सम्प्रदायों के कारण उसके प्रचार में बाधा रही है। उन्होंने विदेशों में एवं भारत में भी जैनविद्याओं के संवर्धन में महान योगदान दिया । तथापि यह दुःखद है कि जैन समाज ने उनको यथानुरूप प्रतिष्ठा नहीं दी। उनके लेखों का एक संग्रह 'डा० शारलोट क्राउजे हर लाइफ एण्ड वर्क्स' पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी से प्रकाशित हुआ है ।
जर्मनी में वर्तमान जैनविद्या - संवर्धक
पूर्वोक्त विवरण से प्रतीत होता है कि जर्मनी में म्यूनिख और हैम्बुर्ग विश्वविद्यालय जैनविद्या - शोध एवं संवर्धन के प्रमुख केन्द्र थे । आजकल फ्राई विश्वविद्यालय के डा. क्लास ब्रुन प्राचीन जैन साहित्य की भाषा के विविध रूपों का आलोचनात्मक अध्ययन कर रहे हैं। साउथ एशिया इंस्टीट्यूट, हाइडेलबर्ग भी एक अच्छा केन्द्र बन रहा है। यहां डा. जी. एफ. बाउमेन ने 'गुजरात की जैन कविता तथा प्रो. एमरिश ने 'दिगम्बरों में समय की अवधारणा' विषय पर शोध की है। विलियम बोले ने 'सूत्रकृतांग पर यूट्रेक्ट
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org