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नंदनवन
थे। इनका कार्य क्षेत्र मुख्यतः बर्लिन रहा है। इनके समय मे हार्नले एवं श्रेडर ने भी जैन साहित्य पर अच्छा काम किया।
इसके बाद बुहलर ने अनेक जैन पुस्तकों एवं आगमतुल्य ग्रंथों का जर्मन तथा अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया। इन्होंने भाषा-सम्बन्धी तत्त्वों का भी अध्ययन किया। इन्होंने भारत में रहकर अनेक पांडुलिपियों का संग्रह किया एवं बर्लिन भेजी। इनका एक लेख 'जैन एन्टीक्वेरी' में 1878 में प्रकाशित हुआ था।
कील विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा. रिचर्ड पिशेल (1849-1908) का नाम ' प्राकृत भाषाओं का व्याकरण' ग्रंथ के रूप में अविस्मरणीय रहेगा। इन्होंने वीबर के व्याख्यान सुने थे और वे संस्कृत के अध्ययन के लिये प्राकृत एवं भाषाविज्ञान के अध्ययन को आवश्यक मानते थे। उन्होंने 'संस्कृत ग्रामर की प्रारम्भिक पुस्तक' (अंग्रेजी) भी लिखी थी। इससे पश्चिम में प्राकृत अध्ययन को बड़ा बल मिला। इन्होंने बुहलर के साथ मिलकर 'देशी नाममाला' का सम्पादन भी किया। इन्होंने जैन ग्रंथों की विशिष्ट भाषा को 'जैन शौरसेनी' नाम दिया था, जो अब भी प्रचलित है। इनके समय में प्रो. हरमन याकोबी भी इसी विश्वविद्यालय में काम करते थे, पर इनका कार्यक्षेत्र भिन्न था।
प्रो. हरमन याकोबी (1859-1937) ने 23 वर्ष की अवस्था में 'लघु जातक' पर पी. एच-डी. प्राप्त की। वे कील विश्वविद्यालय में भारत विद्या विभाग में काम करते थे। उन्होंने मूलरूप में आगमों का अध्ययन किया। वे एतदर्थ भारत भी आये थे। इन्होंने आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और कल्पसूत्र का अंग्रेजी अनुवाद किया जो 'सेक्रेड बुक्स आव दी ईस्ट' ग्रंथ-श्रृंखला में प्रकाशित हुए। इन्होंने 'तत्त्वार्थसूत्र' का भी अनुवाद किया जिससे जैन सिद्धान्तों पर भी शोध दिशा जागरूक हुई। इन्होंने एक ऐतिहासिक कार्य भी किया। जैनधर्म को हिन्दू या बौद्धधर्म की शाखा विषयक जो भ्रांतियां थीं, उन्हें अपने तुलनात्मक अध्ययन द्वारा दूर किया और यह सिद्ध किया कि यह इन दोनों से स्वतन्त्र धर्म-तन्त्र है (1874)। उन्होंने 'सेलेक्टेड स्टोरीज इन महाराष्ट्री' के माध्यम से जैन आगम साहित्य की अनेक महत्त्वपूर्ण कथाओं की ओर विद्वानों का ध्यान दिलाया। उन्होंने गुजरात की दूसरी यात्रा में पर्याप्त हस्तलिखित ग्रंथ एकत्र किये। बाद में उन्होंने 'भविसत्त कहा' और 'सणक्कुमार-चरिउ' नामक अपभ्रंश ग्रंथों का सम्पादन किया। उन्होंने "समराइच्च कहा' तथा 'उपमिातिभवप्रपंचकथा' को भी सम्पादित कर प्रकाशित किया। उनके कार्यों के आधार पर कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें 'डाक्टर आव लैटर्स' उपाधि से सम्मानित किया।
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