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अध्याय - 20
जैनविद्या संवर्धन में विदेशी विद्वानों का योगदान
जैनधर्म के इतिहास से यह भलीभांति स्पष्ट है कि जैनविद्याओं के उन्नयन, संप्रसारण एवं संवर्धन में प्रारम्भ से ही मूलतः जैनेतर विभूतियों का ही योगदान रहा है। इसके महावीर के समकालीन और उत्तरकालीन तथा आरातीय अनेक आचार्य इसी कोटि में आते हैं। सुधर्मा स्वामी, आचार्य सिद्धसेन, मानतुंग, वप्पभट्टि, विद्यानन्द, पुष्पदन्त भूतबलि आदि मूलतः जैन नहीं थे। इस युग में भी पूज्य गणेशवर्णी, आचार्य शान्तिसागर, स्वामी कर्मानन्द, कुंवर दिग्विजय सिंह, भगीरथ वर्णी आदि भी मूलतः जैन नहीं थे। फिर भी, इन्होंने जैन सिद्धान्तों से प्रभावित होकर जैनमत की दार्शनिक एवं धर्म-जगत् में पताका फहराई। यही नहीं, वर्तमान में जो जैन विद्या पर शोध हो रहे हैं, उनमें 80 प्रतिशत जैनेतर लोग ही समाहित हैं। आचार्य कालक या सिकंदर के साथ गये कल्याण मुनि के समान कुछ आचार्यों को छोड़कर इन सभी का कार्य क्षेत्र भारत के आर्य एवं तथाकथित अनार्य क्षेत्रों में जैन विद्याओं को प्रकाशित करना रहा है। वर्तमान वैज्ञानिक प्रगति के कारण विश्व बहुद्वीपी हो गया है और एक-दूसरे से क्षणभर में (फोन या मोबाइल द्वारा) या चौबीस घंटे में प्रत्यक्ष सम्पर्क सम्भव है। इस स्थिति में जैनधर्म के सर्वोदयी रूप को प्रकाशित करना एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। इसके लिये भाषा-सम्बन्धी समस्या बहुआयामी है - बहुपक्षीय है। फिर भी, पूर्व और पश्चिम के अनेक मनीषी, इस समस्या का सामना करते हुए, इस दिशा में उन्नीसवीं सदी से ही काम कर रहे हैं। यहां 'विदेशी शब्द में वे भारतीय मूल के विद्वान भी समाहित मानने चाहिये जो एकाधिक पीढ़ी से प्रवासी हो गये हैं। इनके प्रयासों के फलस्वरूप जैनविद्याओं के प्रति समग्र जगत् की रुचि बढ़ी है। इस समय विश्व में प्रायः 150 से अधिक विदेशी विद्वान जैनविद्या के विविध पक्षों पर पी. एच-डी. हैं और प्रायः तीन दर्जन से अधिक विदेशी केन्दों पर जैनविद्या-शोध के अवसर उपलब्ध हो सकते हैं। हम यहां विदेशों से सम्बन्धित जैनविद्या-सवंर्धन के विषय में विशेष रूप से चर्चा करेंगे।
उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ से ही ब्रिटिश शासन काल में कर्नल मैंकेंजी (1807) आदि ने भारतीय साहित्य एवं कला के जैन स्रोतों को संकलित कर
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