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नंदनवन
बीसवीं सदी में प्रभावना के माध्यम
बीसवीं सदी में संस्कृति के प्रसार के लिये वाद-विवाद, चमत्कारिक घटनायें तथा धर्मान्तरण क्षमता का तो महत्त्व ही नहीं रहा। हां, धार्मिक आयोजन और विविधा भरे साहित्य के माध्यम अब और कारगर हो गये हैं। इसके अतिरिक्त, इस सदी ने अन्य अनेक उपाय भी प्रदान किये हैं:
01. धर्मतन्त्र के लोकप्रिय साहित्य का निर्माण और वितरण 02. धर्मतन्त्र के मूलभूत साहित्य का अन्य भाषाओं में मूल या सटिप्पण
अनुवाद 03. शैक्षिक गतिविधियां : जैन विद्याओं के विविध पक्षों पर शोध एवं
राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियां 04. प्रसार की आधुनिक तकनीकों का उपयोग 05. प्रसार हेतु साधु एवं विद्वानों की देश-विदेशों में यात्रा 06. रेडियो एवं दूरदर्शन पर समय-समय पर नियमित संप्रसारण। 07. माइक्रोफिल्मिंग, फिल्मिंग, कैसेटिंग। 08. कम्प्यूटर तन्त्र का विश्वव्यापी उपयोग, इंटरनेटिंग, वेबसाइट आदि। 09. प्रचार संस्थाओं का सुगठन
यह देखा गया है कि जैनों ने अपने संप्रसारण में प्रायः सभी प्राचीन और नवीन पद्धतियों का न्यूनाधिक मात्रा में ही उपयोग किया है।
जैन साहित्य में 25.5 आर्य एवं 55 अनार्य देशों का उल्लेख आता है। ये सभी प्रायः आज के एशियाई एवं अरब देश हैं। आधुनिक यूरोप और अमरीका उन दिनों, सम्भवतः अज्ञात थे। फलतः धर्म संप्रसारण का क्षेत्र भी समय के साथ बदलता रहा है। आजकल तो प्रायः सभी सात महाद्वीप ही इस क्षेत्र में समाहित हो गये हैं। दिवंगत आचार्य सुशील मुनि ने जैन धर्म के संदेश को 20वीं सदी के अन्त तक सभी महाद्वीपों में फैलाने की योजना बनाई थी। पर उनके असामयिक निधन के कारण यह सम्भव नहीं हो सकी। यह विश्वास किया जाता है कि उनके अनुयायी इस दिशा में अभी भी प्रयत्नशील होंगे। जैन धर्म के संवर्धन का कार्य
सामान्यतः यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि जैनों ने अपने धर्म के प्रचार या संवर्धन में मध्य युग तक कोई विशेष रुचि नहीं ली। फिर भी, साधु-सन्तों के विहार, व्यापारिक वर्ग की यात्रायें तथा जैनों के साहित्य ने समय-समय पर अनेक देशों में जैन धर्म का परोक्ष प्रचार किया है। जैनों ने अपने जनहित कार्यों तथा चमत्कारिक ऋद्धियों के माध्यम से भी प्रचार पाया है।
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