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विदेशों में जैन धर्म का संप्रसारण
अनेक विद्वानों ने विदेशों में जैनधर्म के संवर्धन के लिये ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से विचार किया है। यद्यपि जैन धर्म व्यक्ति- विकास एवं आत्मशोधन का धर्म है, फिर भी अनेक आचार्यों ने बताया है कि उपरोक्त उद्देश्य स्वानुभूति, परोपदेश एवं स्वाध्याय से प्रेरित होकर भी प्राप्त किये जा सकते हैं। ऐसे व्यक्तियों की संख्या बहुत कम है जिनके ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम उच्च कोटि का हो। इसीलिये शास्त्र या परोपदेश आध्यात्मिक विकास को प्रेरित करने के लिये सामान्य विधि रही है। जब इस विधि को सामान्य जनों के लिये प्रयुक्त किया जाता है, तब इसे संप्रसारण कहते हैं । इसे ही 'बुद्ध-बोधन' कहते हैं। इसके अन्तर्गत धर्म-परम्परा के परिरक्षण, संप्रासरण तथा संवर्धन के सभी रूप आ जाते हैं । प्रस्तुत लेख में इन सभी रूपों पर विचार किया गया है।
अध्याय 19
भगवान महावीर अपने समय के जैन धर्म के अत्यन्त प्रभावशाली संवर्धक रहे हैं। आध्यात्मिक विकास की दिशा में उनके प्रयास अन्यों की अपेक्षा अधिक मनोवैज्ञानिक एवं प्रभावी रहे । यही कारण है कि उनके उपदेश न केवल अपने ही देश, अपितु तत्कालीन देशान्तरों में भी प्रभावकारी रहे हैं। वस्तुतः धर्म संप्रसारण का लक्ष्य समस्त मानव जाति को या जीवजाति को अनुप्राणित करना है। इस प्रकार अनुयायियों की संख्या से नहीं, अपितु तन्त्र के संस्कृति और इतिहास के प्रभाव के आधार पर किसी पद्धति का मूल्यांकन किया जाता है ।
धर्म तन्त्र ने मानव को राजनीति की अपेक्षा मनोवैज्ञानिकतः अधिक प्रभावित किया है। फिर भी, यह सचमुच शोचनीय तथ्य है कि वर्तमान वैज्ञानिक युग में इसकी प्रभावशीलता में कमी आती जा रही है। यही नहीं, राजनीति तो पर्याप्त उत्तरवर्ती मानवीय धारणा है। इसके विपर्यास में धर्म, प्राचीन एवं सार्वजनीन है। इसलिये मनुष्य भौतिक या मानसिक संकट के समय धर्म की ही शरण लेता है। जैन तन्त्र के अहिंसा, अपरिग्रह एवं विचारधाराओं की सापेक्ष एवं आलोचनात्मक सत्यता के सिद्धान्त, जीवदया एवं पर्यावरण सुरक्षा के प्रति जागरूकता की धारणायें इसे आकर्षण देती हैं।
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