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मन्त्र की साधकता : एक विश्लेषण
जैन शास्त्रों में मन्त्रविद्या विद्यानुप्रवाद एवं प्राणावाय पूर्वो का महत्त्वपूर्ण अंग रही है। इसका 72 कलाओं में भी उल्लेख है । इस विद्या के बल पर ही भूतकाल में अनेक आचार्यों ने जैन तन्त्र को सुरक्षित, संरक्षित एवं संवर्धित किया है। फलतः यह एक प्राचीन विद्या है जो महावीर के युग से पूर्व भी लोकप्रिय रही होगी। शास्त्रों में इसका विवरण 11 दृष्टिकोणों और नौ अनुयोगद्वारों से किया गया है। इसका लक्ष्य आत्मकल्याण और इहलौकिक कल्याण- दोनों है । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में यह विद्या गोपनीय रही होगी, इसमें गुरु का अपूर्व महत्त्व था । ऐतिहासिक दृष्टि से इस विद्या के उत्थान - पतन के युग आये। पर 7वीं सदी के बाद शक्तिवाद और तन्त्रविद्या के विकास के साथ इसको पुनर्जीवन मिला और अब यह विद्या वैज्ञानिक युग में योग ध्यान के एक अंग के रूप में प्रतिष्ठित हो रही है और व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक कल्याण की वाहक बनती जा रही है।
अध्याय 9
'मन्त्र' शब्द के अनेक अर्थ हैं। मूलतः यह मन की प्रवृत्तियों को नियंत्रित करता है, उन्हें बहुदिशी के बदले एकदिशी बनाता है। यह भौतिक और आध्यात्मिक- दोंनों उद्देश्यों की पूर्ति में, मनोकामना पूर्ति एवं आत्मानुभूति के लिए अन्तःशक्ति जागरण में सहायक होता है। मन्त्रों का स्वरूप विशिष्ट अक्षर रचना, विन्यास एवं विशिष्ट ध्वनि-समूह के रूप में होता है जिसके बारम्बार उच्चारण से ऊर्जा का उद्भव और विकास होता है जो हमारे जीवन को सुख और शक्तिमय बनाता है। वस्तुतः मन्त्रों की साधकता के अनेक आयाम होते हैं- (1) ये हमारे अशुभ एवं ऋणात्मक कर्मों का नाश कर उन्हें सकारात्मक या आध्यात्मिक रूप प्रदान करते हैं; (2) ये हमारे भौतिक एवं आध्यात्मिक पथ को प्रशस्त करते हैं, (3) ये हमारे व्यक्तित्व को विकसित करते हैं और हमारे चारों ओर के आभामण्डल या लेश्या रूपों को प्रशस्तता देते हैं और (4) ये हमारे लिये चिकित्सक का काम कर हमें स्वस्थ बनाते हैं ।
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